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2015-12-07

मुल्ला नसरुद्दीन और शराब



मुल्ला नसरुद्दीन  और शराब 

मुल्ला नसरुद्दीन रोज शराब घर जाता, लेकिन पीने के पहले एक क्रियाकांड करता था। आखिर शराब घर के मालिक का कुतूहल न रुका। रोज अपने खीसे से एक मेंढक निकाल कर अपने टेबल पर रख लेता। शराब पीता, पीता रहता, फिर मेंढक को उठाकर खीसे में रखकर चला जाता। ऐसा रोज होता। स्वभावतः शराबगृह के मालिक ने एक दिन कहा कि नसरुद्दीन, इसका राज हमें भी समझाओ। यह मेंढक का रोज निकालना, फिर खीसे में रखना, इसका मतलब क्या है? नसरुद्दीन ने कहा, मेंढक को निकाल कर रखता हूं फिर मैं पीना शुरू करता हूं। जब एक मेंढक की जगह मुझे दो दिखाई पड़ने लगते हैं, तब मैं समझ लेता हूं अब कुछ करना जरूरी है। तो उस मालिक ने पूछा फिर क्या करते हो? उसने कहा, फिर दोनों को उठा कर खीसे में रख लेता हूं और घर चला जाता हूं।

जितनी तुम्हारी मूर्च्छा होगी उतनी चीजें जैसी हैं वैसी दिखाई नहीं पड़ेंगी। और इस आदमी को यह भी पता है कि मेंढक एक है। लेकिन वह भी कह रहा है कि फिर दोनों को उठा कर खीसे में रख लेता हूं। क्योंकि जब दो दिखाई पड़ते हैं, तो क्या किया जा सकता है? आत्मविश्वास खो जाता है, भरोसा टूट जाता है।

तुमने अपने साथ जो भी किया है जन्मों-जन्मों में, उसका एक परिणाम बड़े से बड़ा जो हुआ है, जो सबसे ज्यादा आत्मघाती है, वह यह है कि तुम्हारी अपने पर श्रद्धा खो गई है। हर घड़ी तुम झूठ, बेईमानी का सहारा ले रहे हो।

मुल्ला नसरुद्दीन के घर चोरी हुई। और दूसरे दिन चोर पकड़ भी लिया गया। तो वह गया पुलिस थाने, थानेदार की आज्ञा लेकर भीतर गया। चोर के पैर पकड़ कर बैठ गया। चोर तो बहुत हड़बड़ाया। उसने कहा, ‘क्या बात है?’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘भैया, एक तरकीब मुझे भी बता दे। किस भांति तू घर में घुसा? बड़ा गजब का आदमी है। इसी तरह मैं भी घुस जाऊं और पत्नी को पता न चले। बस, यह राज बता दे।’

तुम जीवन में अगर कुछ भी सीख रहे हो तो बस, धोखा! तुम्हारी सारी कुशलता, चालाकी, होशियारी, दूसरे को धोखा देने पर निर्मित है। लेकिन ध्यान रखना, जब तुम दूसरे को इतना धोखा दोगे, तो तुम्हारी अपने पर श्रद्धा खो जायेगी। और धोखा देने से जो मिलता है वह ना-कुछ है। और खुद की श्रद्धा खो जाने से जो खो जाता है, वह बहुत कुछ है। तुम बड़े सस्ते में अपने को बेचे डाल रहे हो। बेच ही डाला है।

इसलिए अगर मैं तुमसे कहूं कि तुम परमात्मा हो, तुम कहोगे, होगी सिद्धांत की बात, शास्त्रों में लिखी है, मगर जंचती नहीं है। जंचती नहीं है, इसलिए नहीं कि तुम परमात्मा नहीं हो; बल्कि इसलिए, कि इस परमात्मा होने और इस परमात्मा के छिपाने में इतना समय हो गया है। और तुम इतने काम कर चुके हो और उनका जाल तुम अपने चारों तरफ खड़ा कर चुके हो। वही तुम्हारा कर्मजाल है।

इसलिए गुरु को तुम्हारा कर्मजाल तोड़ने के लिए भी नये कर्मजाल खड़े करने पड़ते हैं। जैसे एक कांटा लगा हो तो दूसरे कांटे को खोजना पड़ता है–कांटे से कांटा निकालने के लिए। दूसरे कांटे का कोई भी मूल्य नहीं है। दूसरा कांटा उतना ही कांटा है जितना पहला कांटा! पहले को निकाल कर दूसरे को उस घाव में मत रख लेना कि इसने बड़ी कृपा की; कि इसने एक कांटे से छुटकारा दिला दिया। बहुत लोग वही कर रहे हैं। कांटे से कांटा निकल जाये, दोनों फेंक देना। बस, बेकांटा हो जाना ही समाधिस्थ हो जाना है।

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