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2016-02-16

निस्वार्थ रहना या निस्वार्थ कर्म का क्या है?

निस्वार्थ रहना या निस्वार्थ कर्म का क्या है?


ऐसे कर्म का भाव ऐसी चीज है, जिसे धीरे-धीरे प्राप्त किया जा सकता है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे क्षण भर में समझा या प्राप्त किया जा सके। लंबे समय तक इसके साथ सजगता बनी रहनी चाहिए। यह गीता की अवधारणा है। कार्य कौन संपादित करता है? शरीर, मन या आत्मा? गीता में इसका उत्तर दिया गया है। तदनुसार शरीर के अंदर बैठी आत्मा कार्य संपादित कर रही है। इस संदर्भ में कार और चालक की उपमा प्रासंगिक है। कार को कौन चलाता है? एक कार सिर्फ धातुओं से बनी एक संरचना है, जिसमें गियर और इंजन लगी है। 
 

मन इग्निशन के समान है, जिसे एक बार घुमा देने पर कार आगे बढ़ने लगती है। स्पार्क प्लग से आने वाला प्रारंभिक स्पार्क ही इंजन को ज्वलित करता है तथा मशीन को आगे बढ़ाता है। आत्मा या भीतर बैठा हुआ ड्राइवर इग्निशन, ब्रेक, क्लच, प्रकाश और अन्य समस्त चीजों को नियंत्रित करता है। किंतु वह ड्राइवर वस्तुत: कार, उसके गियर, उसकी धात्विक संरचना तथा संपूर्ण संरचना के अंदर हो रही गति से भिन्न है, अलग है। वह ड्राइवर इंजन के अंदर वास्तव में जो कुछ हो रहा है उससे अनभिज्ञ है। वह तो सिर्फ सामने के डायल्स देख रहा है।

ड्राइवर का कार्य यह देखना नहीं है कि गियर किस प्रकार बदल रहे हैं या सभी सिलिंडर क्रमिक रूप से चल रहे हैं या नहीं। उसे तो सिर्फ मीटर देखना है और मॉनिटर करना है। उसे इससे यह पता चलता है कि कार ठीक से कार्य कर रही है या नहीं। इसी प्रकार आत्मा ही हमारे समस्त कार्यों को निर्देशित कर रही है। गीता इस बात पर बल देती है कि व्यक्ति को अंतरात्मा का अनुभव प्राप्त करना है। उसे कार की वास्तविक गति या शारीरिक क्रिया-कलापों से तादात्म्य नहीं स्थापित करना है। कार की गति अप्रासंगिक है, अंदर बैठा हुआ ड्राइवर महत्वपूर्ण है। लंबी यात्रा के लिए कार को ठीक स्थिति में रखना भी आवश्यक है। अत: कार्य कौन संपादित कर रहा है। ड्राइवर संपादित कर रहा है। आत्मा ड्राइवर है। व्यक्ति का मन उस ड्राइवर या आत्मा के प्रति किस प्रकार सजग हो सकता है? कर्मयोग की विशेषताओं जैसे दक्षता, समभाव या संतुलन, अपेक्षा, अहंकारहीनता, इच्छाओं का परित्याग जैसी प्रक्रियाओं का अनुकरण करने से यह संभव है।
 
-- स्वामी निरंजनानंद सरस्वती

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