2016-05-02

गंगा का माहात्म्य

गंगा सिर्फ एक नदी का नाम नहीं

 गंगा सिर्फ एक नदी का नाम नहीं है, बल्कि यह जीवनदायी है। गंगा की लहरों ने न जाने कितनी सभ्यताओं व संस्कृतियों को बनते बिगड़ते देखा। वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक के उत्थान-पतन का गवाह है गंगा। राजनीति, अर्थनीति, सामाजिक व्यवस्था से लेकर धर्म, अध्यात्म, पर्यटन, पर्यावरण तक सब इससे प्रभावित होते रहे हैं। एक ही गंगा के न जाने कितने रूप हैं, हर कोई उसे अपने-अपने नजरिए से विश्लेषित करता है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। इसके ऊपर बने पुल, बाँध और नदी परियोजनाएँ भारत की बिजली, पानी और कृषि से संबंधित जरूरतों को पूरा करती हैं। राष्ट्रीय नदी गंगा भारत की सबसे लंबी नदी है जो पर्वतों, घाटियों और मैदानों में 2,510 किलोमीटर की दूरी तय करती है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। तभी तो इसे माँ कहा गया है। इसकी गोद में न जाने कितनों का विकास हुआ, प्रभाव बढ़ा और आज भी गंगा तट के बाशिंदों को गर्व है कि वे माँ गंगा के सानिध्य में फलते-फूलते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने गंगा को भुक्ति-मुक्ति दायिनी कहा है। गंगा जी के बारे में तुलसीदास की चौपाई हैः- दरश्, परस, मज्जन अरु पाना। हरहिं पाप, कह वेद पुराना।। अर्थात, गंगा जी के दर्शन, स्पर्श, स्नान और पान से सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। वैसे भी, गंगा को शास्त्रों में ब्रह्म द्रव कहा गया है। सीधे शब्दों में कहें तो गंगा हमारी जरूरतों को भी पूरा करती हैं और मुक्ति भी दिलाती है। यानी हमारी भुक्ति-मुक्ति दोनों का साधन बनती है। गंगा नदी हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है। यह करोड़ों लोगों के लिए जीवन रेखा और आस्था का प्रतीक है।

गंगा का माहात्म्य

माहात्म्य - महत् होने की अवस्था या भाव। गौरव। महिमा। आदर-सम्मान।  धार्मिक क्षेत्र में किसी पवित्र या पुण्य-कार्य से अथवा किसी स्थान के महत्त्व का वर्णन। 

नारदजी को ब्रह्माजी ने कहा की गंगा का माहात्म्य  इतना व्यापक हें, उसके वारे में सब जानते हें | श्रीविष्णु के चरणों से निकली गंगा को सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने अपने कमंडल में धारण किया था | जहाँ से वह गौतम  मुनि के प्रयासों से पृथ्वी पर आई |  

परम पवित्र गंगा के पृथ्वी पर आने पर रत्नाकर सागर ने यह सोचा की यदि देव त्रिमूर्ति द्वारा और समस्त लोको द्वारा पूजी गई गंगाजी स्वागत के लिय मैने प्रयन्त नही किया तो यह पूज्य पुरषों की अवमानना होगी और मेरा अपराध अक्षम्य हो जायेगा | मन में यह सोच कर रत्नाकर सागर गंगाजी की शरण में जाकर कहाँ की में पृथ्वी, आकाश और पाताल में उपस्थित समस्त जलराशि को अपने में समाने में समर्थ हूं और प्रस्तुत हूं | मेरे भीतर अमृत औषाधियॉ, पर्वत, राक्षस, अनेक रत्न और अनेक जीव निवास करते हें | लक्ष्मीजी के साथ श्रीविष्णु भी मुझमें शयन करते हें | इसके वावजूद में आपके गौरव के सामने नमन करता हूं, और निवेदन करता हूं की आप मेरे साथ समागम करें | तब गंगाजी ने कहा की वह सात-ऋषियों को सपत्नीक मेरे पास लाये तभी में उनकी उपस्थति में आपके साथ चल सकती हूं | रत्नाकर सागर ने एसा ही किया और गंगाजी की सात धाराओं के लघु रूप को धारण कर गंगाजी ने सागर ( समुद्र) के साथ गमन किया |

           गंगा का अपना इतिहास हें, गंगा भगवान शिव की जटाओं में,  जब से आई तब से वह उन्हें प्रिय हें | गंगाजी के प्रति शिवजी का यह भाव उनकी पत्नी पार्वती को सहन नही हुआ | उन्होंने अपने पति शिव की उपेक्षा देखकर अपने पुत्र गणेश कहा, हें पुत्र गणेश ! गंगा को मेरे पति से अलग करो | क्योंकि शिव के गंगाजी के साथ रहने पर सभी देवता वहां निवास करते हें | ऐसी दशा में पार्वती को गंगा में अपनी सपत्नी होने का आभास होता हें |  

         गौतम मुनि ने पूर्वकाल में अपनी तपस्या से भगवान् शिव को प्रसन्न कर गंगा को मांग लिया था, साथ ही यह वरदान भी माँगा था कि जटा से निकली गंगा के समुद्र तक जाने के मार्ग में सर्वत्र भगवान शिव साक्षात् रूप से स्वयमविध्मान रहेंगे | शिवजी ने गौतम मुनि  को यह वरदान सहर्ष दिया था |

        इसलिय शिवजी को गंगा से अलग नही किया जा सकता | तब से गंगा-स्नान में विघ्न डालने वाले ये भगवान् गणेश मनुष्यों के मार्ग में रूकावटे पैदा करते हें | जो मनुष्य उन विघ्नों को पार करता हुआ अपनी अटूट भक्ति से गंगा के प्रति समर्पित होकर उनका सेवन करता हें, वह कृतार्थ हो जाता हें |




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