2016-08-13

मद्य-शास्त्र. हास्य व्यग्य

"मद्य-शास्त्र"

मदिरापान को हमेशा एक अनुष्ठान या यज्ञ की  भावना में ही लेना चाहिए।
जैसे गृहस्थ पुरुष यज्ञ रोज ना कर के, केवल कभी कभी ही करते है, वैसे ही मदिरापान भी केवल कुछ शुभ अवसरों पर ही करना उचित है।

मदिरापान केवल प्रसन्नता की स्थिति में ही करने का विधान है।

अवसाद की स्थिति में ऐसा यज्ञ करना सर्वथा वर्जित है, और जो इस नियम का उलंघन करता है,पाप का भागी होकर कष्ट  भोगता है।
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यज्ञ  के लिए सवर्प्रथम शुभ दिन का चयन करे। 

शुक्रवार, शनिवार और रविवार इसके उपयुक्त दिन है ऐसा शास्त्र में लिखा है किन्तु इसके अतिरिक्त कोई भी अवकाश का दिन भी शुभ  होता है।
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यद्यपि सप्ताह के अन्य दिनों में यज्ञ करना उचित नहीं है किन्तु अत्यंत प्रसन्नता के अवसरों में किसी भी दिन इस यज्ञ का आयोजन किया जा सकता है , ऐसा भी विधान है।

यज्ञ करने का निश्चय करने के बाद समय का निर्धारण करे।

सामान्यतः यह यज्ञ सांयकाल या रात्रि में और अधिक से अधिक मध्य रात्रि तक ही करने का विधान है , रात्रि बहुत अधिक  नहीं होनी चाहिए।

अपवाद स्वरुप दिन में छोटा सा 'बियर रूपी'अनुष्ठान किया जा सकता है, किन्तु प्रातःकाल में इस यज्ञ  का करना पूर्णतः वर्जित है।

यज्ञ में स्थान का बहुत महत्त्व है, यद्यपि वर्जित तो नहीं है, लेकिन इस यज्ञ को गृह में न करना ही उचित है। 
इस को करने का सर्वोत्तम स्थल क्लब अथवा 'बार' या 'अहाता' नामक पवित्र स्थान होता है।

स्थान का चयन करते समय ध्यान दे की वहां  दुष्ट आत्माए यज्ञ  में बाधा ना डाल सके। 

ये भी ध्यान रहे की यज्ञ  स्थल विधि सम्मत हो।

यज्ञ अकेले ना कर,अन्य साधू जनों की संगत में ही करना ही उचित होता है। 

अकेले में किये गए यज्ञ से कभी पुण्य नहीं मिलता, बल्कि यज्ञ  करने वाला मद्य- दोष को प्राप्त होकर, 'शराबी' या 'बेवडा' कहलाता है।

प्रसन्न मन से, शुभ क्षेत्र में बैठ कर, साधू जनों की संगत में, मधुर संगीत रुपी मंत्रो के साथ, शास्त्रोचित रूप से किये गए मदिरा पान के यज्ञ को करने वाला साधक, 'टुन्नता' के असीम पुण्य को प्राप्त होता है।मदिरापान के समय, यज्ञ अग्नि से भी अधिक महत्पूर्ण जठरागनी को भी शांत करना अत्यंत आवश्यक है। 

इसके लिए पर्याप्त मात्रा में भोज्य पदार्थ जिसे 'चखना' की उपाधि दी गयी है, लेकर बैठना ही उचित है। वैसे तो मुर्गा ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है, किन्तु पनीर, काजू, मूंगफली, नमकीन या अपनी  इच्छानुसार कोई भी चखना लिया जा सकता है। 

कुछ परम साधक तो सिर्फ नमक को ही पर्याप्त मानते हैं।

एक अन्य आवश्यक पदार्थ सिगरेट नमक दंडिका भी इस यज्ञ का महत्वपूर्ण अवयव है। जो मूर्ख पुरुष इस अग्नि दंडिका का सम्मान नहीं करते, वे अग्नि के श्राप को प्राप्त हो, अनेक कष्टों को  भोगते है।


'मद्यसूत्रम' नामक महाकाव्य में इसकी आधुनिक सेवन विधि विस्तार से समझाई गई है, जिसमे सर्वप्रथम खाली गिलास लेकर अपने हाथ सीधे करते हुए उसमे 30 एम् एल मदिरा डालें फिर अपनी स्वेच्छानुसार सोडा या कोल्ड ड्रिंक का थोडा मिश्रण करें फिर अंत में बर्फ के एक दो टुकड़े डालें इसे एक 'पेग' की उपाधि दी गई है।

अब उपस्थित साधकों की संख्या के बराबर ऐसे ही पेग तैयार करें व् सब में वितरित करें। 

इसके बाद एक ऊँगली गिलास में डाल कर बाहर एक दो बूंद छिडकें। 

यह क्यों किया जाना है, इसका उल्लेख किसी शास्त्र में भी नहीं है। 

तत्पश्चात सभी भक्तजन अपने ग्लास हाथ में लेकर एक दूसरे के गिलास से हलके से छुएं और  'चियर्स'  नामक मन्त्र का ज़ोर से उच्चारण करें। 

ध्यान रखें यदि इस मन्त्र का उदघोष नहीं हुआ तो आपका पुण्य असंभव है।


परम ज्ञानी स्वामी श्री मद्याचार्य द्वारा रचित 'मद्य संहिता'  में कुछ असुरी शक्तियों का भी वर्णन है जो इन साधकों के साथ बैठकर इनके पैसों पर इनके ही मद्य मुद्रासनों का भरपूर आनंद प्राप्त करते हैं। 

इन्हें 'चखनासुर' की उपाधि दी गयी है।

ये असुर इन यज्ञ साधकों के चखने और कोल्ड ड्रिंक नामक सहायक पेय पदार्थ पर विशिष्ठ निगाह गडाए रहते हैं और उसे जल्द से जल्द हडपने के प्रयास में रहते हैं। कई अवसर पर तो भगवन 'बार' देव के बिल में इन चखनासुरों का हिस्सा बेचारे साधक से भी अधिक रहता है।

बाबा मद्याचार्य के हिसाब से मद्य प्रेमियों की नज़र में यह निकृष्ट प्राणी दरअसल एक बेहतरीन श्रोता भी होता है जो ऐसा दर्शाता है कि वह उपासक के हर प्रवचन को अपना सर्वस्व समझ कर ग्रहण कर रहा है।

ऐसे प्राणी एक और अच्छा कार्य करते हैं कि जब मद्ययज्ञ अपनी आहुति की ओर बढ़ता है और मद्य साधक अपने मद्यश्लोक उच्चारित करता है और 'साले दरुए' की  सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने की ओर अग्रसर होता है तब यही असुर जनता में हाथ जोड़कर आपके लिए अपना मुख सुंघाते हुए माफ़ी मांगता है और आपको उस संकट से निकलने में सहायक सिद्ध होते हैं।

इसके अलावा चखनासुर एक और परम धर्म निभाता है कि वो उल्टी होने, नाली में गिरने या अत्यधिक टुन्न मग्न मद्य यज्ञ साधक के चलने फिरने की असमर्थता में उसे घर तक छोड़ कर आता है तथा साधक के परिवारजनों से भरपूर सम्मान भी प्राप्त करता है।



इसी कारण से सदा इस यज्ञ में कम से कम एक असुर भी अपने साथ लिये जाने का प्रावधान भी किया गया है।


श्री बेवडाचार्य रचित  "मद्याचरण" नामक ग्रन्थ में भी इस यज्ञ का उल्लेख पाया जाता है। 
उसमे वर्णित है की साधना की उच्च अवस्था प्राप्त करने के इच्छुक मुनिजनों को यज्ञ तब तक करना चाहिए जब तक उच्च स्वर में कुछ परमादरणीय पारिवारिक सम्बन्ध बढ़ाते श्लोक स्वमेव मुख से प्रस्फुटित न होने लगें। 
उन श्लोकों के पश्च्यात पूर्णाहुति में कुछ मन्त्र वाक्यों का उच्चारण आवश्यक है अन्यथा यज्ञ देवता कुपित होते हैं। कुछ प्रमुख मंत्राचरण निम्नलिखित हैं  :                              
1):- आज तो चढ़ ही नहीं रही !
2):- कल से पीना बंद !                              
3):- आज तो कम पड़ गयी, और मंगाए क्या ?                             

4):- बार बंद होने का टाइम है तो क्या, अभी तो हमने शुरू की है !
5):- ये मत सोचना कि मुझे चढ़ गयी है !
6):- गाडी आज हम चलाएंगे !
7):- तुम बोलो कितने पैसे चाहिए ?
8):- यार इस ब्रांड की बात ही अलग है !
9):- तू शायद समझ नहीं रहा !
10):- तुम आज से मेरे सब कुछ !
11):- यार तेरे अलावा ये दुनिया मेरे को समझ नहीं पाती !
12):- अब हम गाना गायेंगे !
13):- भाई तेरी स्टोरी ने तो सेंटी कर दिया !
14):- तुम बस बताओ कब चलना है ??
15):- तू भाई है मेरा !


आदि इत्यादि जैसे कुछ मूल मन्त्र हैं जिन्हें उच्चारित किये बिना कोई हवन पूर्ण नहीं होता।

तो परम प्रिय बंधुओं, अब संध्या बेला हो चुकी है, आप सभी को मद्य यज्ञ की पूर्ण विधि समझा दी गई है। 
आशा है कि मद्य पान में अपना यथोचित योगदान देकर मद्य यज्ञ को सफल बनायेंगे और हम जैसे किसी चखासुर को भी अपने सानिध्य का सुअवसर प्रदान करेंगे ......... 
चियर्स !!!

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