2016-08-14

नालंदा विश्वविद्यालय

नालंदा विश्वविद्यालय - एक वैश्विक विरासत


प्राचीन बिहार प्रांत (जिसका नामकरण बौद्ध विहारों की बहुलता के कारण बिहार हुआ) के नालंदा जिले में स्थापित है यह प्राचीनतम विश्वविद्यालय । नालंदा’ शब्द संस्कृत के तीन शब्दों के संधि से बना है : ना+आलम+दा , इसका मौलिक अर्थ है ‘ज्ञान रूपी उपहार पर कोई प्रतिबन्ध न रखना। ‘वास्तविकता में यह वही ‘ज्ञान रूपी उपहार’ है, जिसका अभ्यास भारतीय विद्वान नालंदा में करीब 2000 वर्ष पूर्व किया करते थे।

नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना करीब 2500 साल पहले बौद्ध धर्मावलम्बियों ने की थी। यह विश्वविद्यालय न केवल कला, बल्कि शिक्षा के तमाम पहलुओं का अभिनव केन्द्र था। सामान्यतया नालंदा विश्वविद्यालय का काल 6ठी से 13वीं शताब्दी तक का यानि 700 साल का माना जाता है।

यह प्राचीन भारत में उच्च् शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विश्व विख्यात केन्द्र था ।महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे । यह... वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं सदी में भारत भ्रमण के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।

यह प्राचीन भारत में उच्च् शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विश्व विख्यात केन्द्र था ।महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे । यह वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं सदी में भारत भ्रमण के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।

प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहाँ जीवन के महत्त्वपूर्ण एक वर्ष तक एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था । प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था | इतिहासकारों के अनुसार इस महान विश्वविद्यालय की स्थापना व संरक्षण इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७० ई. को प्राप्त है और इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियोंका पूरा सहयोग मिला । यहाँ तक कि गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा, और, इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला तथा स्थानीय शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला । 

आपको यह जानकार ख़ुशी होगी कि यह विश्व का प्रथम पूर्णतःआवासीय विश्वविद्यालय था और विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब 10 ,000 एवं अध्यापकों की संख्या 2 ,000 थी । इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे और, नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे । इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं सदी तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी ।

यहाँ अध्ययनरत छात्र न केवल बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण करते थे, बल्कि उनकी शिक्षा में अन्य संस्कृतियों और धार्मिक मान्यताओं का समावेश था। नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा पूर्ण रूप से नि:शुल्क थी। यह तथ्य ‘नालंदा’, शब्द के आखिरी अक्षर ‘दा’ से पता चलता है, जिसे संक्षिप्त में दान कहेंगे। इसे उपहार के अर्थ में भी लिया जा सकता है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नालंदा विश्वविद्यालय उन भारतीय प्रतीकों में से एक है, जिन पर न केवल भारतीयों को गर्व है, बल्कि आने वाली पीढ़ियां भी निःसंदेह गौरवान्वित होंगी।

नालंदा विश्वविद्यालय का मुख्य उद्देश्य ऐसी पीढियों का निर्माण करना था, जो न केवल बौद्धिक बल्कि आध्यात्मिक हों और समाज के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकें। इस विश्व-विख्यात विश्वविद्यालय के बारे में आज हम बेहद कम जानकारी रखते हैं। शायद 10 फीसदी भी नहीं। हालांकि, जो जानकारी हमारे पास उपलब्ध है, उसके लिए हमें सातवीं शताब्दी में भारत भ्रमण के लिए आए चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग का आभारी होना चाहिए। इनके यात्रा विवरणों से नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में काफी कुछ पता चलता है।

आधुनिक काल में तो हमारे देश का इतिहास 712 ईस्वी के बाद ही आरम्भ होता है , थोडा बहुत मौर्य और गुप्त वंश को पढ़ाया जाता है, बाकि तो केवल 1235 वर्ष के अंदर ही भारत के इतिहास को समेट कर रख दिया गया है, उसमे भी धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता का एक भयंकर आडम्बर लगाकर रखा गत्य है और सत्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है। खैर , हम नालंदा की बात कर रहे थे जो हमारी जन्मभूमि भी है ।

नालंदा की स्थापना बौद्ध संन्यासियों द्वारा की गई थी, जिसका मूल उद्देश्य एक ऐसे स्थान की स्थापना करना था, जो ध्यान और आध्यात्म के लिए उपयुक्त हो। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध ने कई बार नालंदा की यात्रा की थी। वह यहां रहे भी थे। इस कारण इसे पाँचवी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक बौद्ध शिक्षा के केन्द्र के रूप में भी देखा जाता था, जहाँ संस्यासियों को अनुकूल शिक्षा और आध्यात्म का वातावरण प्रदान किया जाता था।

नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय ‘धर्म गूंज’, जिसका अर्थ है ‘सत्य का पर्वत’, संभवतः दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय था। यह दुनिया भर में भारतीय ज्ञान का अब तक का सबसे प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध केन्द्र था। ऐसा कहा जाता है कि पुस्तकालय में हजारों की संख्या में पुस्तकें और संस्मरण उपलब्ध थे। इस विशालकाय पुस्तकालय के आकार का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें लगी आग को बुझाने में छह महीने से अधिक का समय लग गया। इसे इस्लामिक आक्रमणकारियों ने आग के हवाले कर दिया था। नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में तीन मुख्य भवन थे, जिसमें नौ मंजिलें थी। तीन पुस्तकालय भवनों के नाम थे रत्नरंजक’, ‘रत्नोदधि’, और ‘रत्नसागर’।

आधुनिक इतिहासकार तो सम्भवतः इस तथ्य को भी झुठला दें, क्योकि आज के समय में कदाचित ही कोई इतिहासकार नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय के बारे में शोध करने की रूचि रखता हो, और हमारे इतिहासकारो की अपनी ही संस्कृति व् विरासत के प्रति इस घोर अन्यमनस्कता के कारण जो श्रेय इस विश्वविद्यालय को मिलना चाहिए था वह एलेक्जेंड्रिया को मिला , हालांकि उस महान विद्याकेंद्र को भी कालांतर में नष्ट कर दिया गया था और दोनों सहोदर विद्याकेंद्र एक ही गति को प्रा0प्त हुये ।

इस विश्वविद्यालय को भी 12वीं शती के काल में मुगल लुटेरे बख्तियार ख़िलजी ने नष्ट कर दिया । इसपर भी कुछ महँ धर्म निरपेक्ष विचारक यह कहते है कि ख़िलजी एक महान् भविष्यद्रष्टा सूफी संत था जिसने वहां पर फैले अनाचार को नष्ट करने के लिए और इस्लाम विरोधी प्रचार को बंद करने हेतु इसे जला दिया और स्थानीय लोगो ने भी मदद की, बाद में वही पर बख्तियारपुर नाम का नगर बसाया गया उसी के नाम पर।

इस पर भी बहुत सी बाते है हैं कहने को, संक्षेप में इतना ही कहूँगा कि जिस बख़्तियारपुर की आप बात ये करते हैं, वो असल मे वह जगह है जहाँ बख़्तियार खिलजी को नालन्दा और विक्रमशिला विध्वंश के उपरान्त बंगाल से वापस आते समय ही लिच्छ्वी के वीर सपूतो ने गंडक और सोन नदी के बीच मे घेर कर मारा था । पहले तो उसे बंदी बनाया , फिर सात साल तक सूअर के बारे मे कैद रखा और उसके घृणित कर्मअनुसार ही यतात्नाएं भी दी गई, बाद में वँहा के लोगो ने उसे जिंदा जला दिया..! आज भी मखदूम पुर के पास सुलभ सौचालय के बगल मे उसकी मज़ार है..! हर ईद के दिन उर्स लगती है, क्योकि उसे ई द के दिन ही जलाया था। कुछ साल पहले उसकी कब्र की जमीन भी सुलभ शौचालय वालों को दे दी गयी है। कुछ यहां पर जातिवाद का भी आरोप लगाते हैं, परंतु यह जान लिया जाये कि नालन्दा विश्वविद्यालय का द्वार हर किसी के लिये समान रूप से खुला रहता था, तभी तो एक और सूफ़ी अलबरूनी चार साल तक आचार्यो की चरण पादुकाये साफ कर वँहा आयुर्वेद का ज्ञान सीखा। यह बात अलबरूनी ने अपने किताब में स्वयं ही लिखी है..!

इसी के आस पास में तारेगना (जहाँ तारो की गणना का मुख्य केंद्र हुआ करता था, कुछ वर्ष पहले के पूर्ण खग्रास को देखने के लिये विश्व भर के वैज्ञतानिक यहां आये हुयेथे), खगौल (जो कभी खगोलशास्त्र व् अंतरिक्ष विज्ञानं का विश्वप्रसिद्द केंद्र हुआ करता था ) यहीं पर है। यह भूमि आचार्य वाराहमिहिर, आर्यभट्ट, जैसे महान वैज्ञानिकों की भूमि रही है।

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