शिवलिंग से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रतिमा पृथ्वी पर कभी नहीं खोजी गई। उसमें आपकी आत्मा का पूरा आकार छिपा है। और आपकी आत्मा की ऊर्जा एक वर्तुल में घूम सकती है, यह भी छिपा है। और जिस दिन आपकी ऊर्जा आपके ही भीतर घूमती है और आप में ही लीन हो जाती है, उस दिन शक्ति भी नहीं खोती और आनंद भी उपलब्ध होता है। और फिर जितनी ज्यादा शक्ति संगृहीत होती जाती है, उतना ही आनंद बढ़ता जाता है।
हमने शंकर की प्रतिमा को, शिव की प्रतिमा को अर्धनारीश्वर बनाया है। शंकर की आधी प्रतिमा पुरुष की और आधी स्त्री की- यह अनूठी घटना है। जो लोग भी जीवन के परम रहस्य में जाना चाहते हैं, उन्हें शिव के व्यक्तित्वको ठीक से समझना ही पड़ेगा।और देवताओं को हमने देवता कहा है, शिव को महादेव कहा है। उनसे ऊंचाई पर हमने किसी को रखा नहीं। उसके कुछ कारण हैं।
अगर आप बायोलॉजिस्ट से पूछें आज, वे कहते हैं- हर व्यक्ति दोनों है, बाई-सेक्सुअल है। वह आधा पुरुष है, आधा स्त्री है। होना भी चाहिए, क्योंकि आप पैदा एक स्त्री और एक पुरुष के मिलन से हुए हैं ।तो आधे-आधे आप होना ही चाहिए। अगर आप सिर्फ मां से पैदा हुए होते, तो स्त्री होते। सिर्फ पिता से पैदा हुए होते, तो पुरुष होते। लेकिन आप में पचास प्रतिशत आपके पिता और पचास प्रतिशत आपकी मां मौजूद है। आप न तो पुरुष हो सकते हैं, न स्त्री हो सकते हैं- आप अर्धनारीश्वर हैं। बायोलॉजी ने तो अब खोजा है, लेकिन हमने अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में आज से पचास हजार साल पहले इस धारणा को स्थापित कर दिया।
यह हमने खोजी योगी के अनुभव के आधार पर। क्योंकि जब योगी अपने भीतर लीन होता है, तब वह पाता है कि मैं दोनों हूं। और मुझमें दोनों मिल रहे हैं। मेरा पुरुष मेरी प्रकृति में लीन हो रहा है; मेरी प्रकृति मेरे पुरुष से मिल रही है। और उनका आलिंगन अबाध चल रहा है; एक वर्तुल पूरा हो गया है। मनोवैज्ञानिक भी कहतेहैं कि आप आधे पुरुष हैं और आधे स्त्री। आपका चेतन पुरुष है, आपका अचेतन स्त्री है। और अगर आपका चेतन स्त्री का है, तो आपका अचेतन पुरुष है। उन दोनों में एक मिलन चल रहा है।
आमतौर पर शिवलिंग को गलत अर्थों में लिया जाता है, जो कि अनुचित है या उचित यह हम नहीं जानते। वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है।
शिवलिंग शिव( शंकर ) भगवान का प्रतीक है। उनके निश्छल ज्ञान और तेज़ का यह प्रतिनिधित्व करता है। 'शिव' का अर्थ है - 'कल्याणकारी'। 'लिंग' का अर्थ है - 'सृजन'। शंकर के शिवलिंग की जल, दूध, बेलपत्र से पूजा की जाती है। सर्जनहार के रूप में उत्पादक शक्ति के चिह्न के रूप में लिंग की पूजा होती है।
स्कंद पुराण में लिंग का अर्थ लय लगाया गया है। लय ( प्रलय) के समय अग्नि में सब भस्म हो कर शिवलिंग में समा जाता है और सृष्टि के आदि में लिंग से सब प्रकट होता है। लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और ऊपर प्रणवाख्य महादेव स्थित हैं।
वेदी महादेवी और लिंग महादेव हैं। अकेले लिंग की पूजा से सभी की पूजा हो जाती है। पहले के समय में अनेक देशों में शिवलिंग की उपासना प्रचलित थी। जल का अर्थ है प्राण। शिवलिंग पर जल चढ़ाने का अर्थ है योगिराज ( परम तत्व) में प्राण विसर्जन करना। स्फटिक लिंग सर्वकामप्रद है। पारद (पारा) लिंग से धन, ज्ञान, ऐश्वर्य और सिद्धि प्राप्त करता है।
आदिकाल में ब्रह्मा ने सबसे पहले महादेव जी से संपूर्ण भूतों की सृष्टि करने के लिए कहा। स्वीकृति देकर शिव भूतगणों के नाना दोषों को देख जल में मग्न हो गये तथा चिरकाल तक तप करते रहे। ब्रह्मा ने बहुत प्रतीक्षा के उपरांत भी उन्हें जल में ही पाया तथा सृष्टि का विकास नहीं देखा तो मानसिक बल से दूसरे भूतस्त्रष्टा को उत्पन्न किया। उस विराट पुरुष ने कहा- 'यदि मुझसे ज्येष्ठ कोई नहीं हो तो मैं सृष्टि का निर्माण करूंगा।' ब्रह्मा ने यह बताकर कि उस 'विराट पुरुष' से ज्येष्ठ मात्र शिव हैं, वे जल में ही डूबे रहते हैं, अत: उससे सृष्टि उत्पन्न करने का आग्रह किया है। उसने चार प्रकार के प्राणियों का विस्तार किया। सृष्टि होते ही प्रजा भूख से पीड़ित हो प्रजापति को ही खाने की इच्छा से दौड़ी। तब आत्मरक्षा के निमित्त प्रजापति ने ब्रह्मा से प्रजा की आजीविका निर्माण का आग्रह किया। ब्रह्मा ने अन्न, औषधि, हिंसक पशु के लिए दुर्बल जंगल-प्राणियों आदि के आहार की व्यवस्था की। उत्तरोत्तर प्राणी समाज का विस्तार होता गया। शिव तपस्या समाप्त कर जल से निकले तो विविध प्राणियों को निर्मित देख क्रुद्ध हो उठे तथा उन्होंने अपना लिंग काटकर फेंक दिया जो कि भूमि पर जैसा पड़ा था, वैसा ही प्रतिष्ठित हो गया। ब्रह्मा ने पूछा-'इतना समय जल में रहकर आपने क्या किया, और लिंग उत्पन्न कर इस प्रकार क्यों फेंक दिया?'
शिव ने कहा-'पितामह, मैंने जल में तपस्या से अन्न तथा औषधियां प्राप्त की हैं। इस लिंग की जब कोई आवश्यकता नहीं रही, जबकि प्रजाओं का निर्माण हो चुका है।' ब्रह्मा उनके क्रोध को शांत नहीं कर पाये। सत युग बीत जाने पर देवताओं ने भगवान का भजन करने के लिए यज्ञ की सृष्टि की। यज्ञ के लिए साधनों, हव्यों, द्रव्यों की कल्पना की। वे लोग रुद्र के वास्वविक रूप से परिचित नहीं थे, अत: उन्होंने शिव के भाग की कल्पना नहीं की। परिणामत: क्रुद्ध होकर शिव ने उनके दमन के लिए साधन जुटाने प्रारंभ कर दिये।
यज्ञ पांच प्रकार के माने जाते हैं:
लोक,
क्रिया,
सनातन गृह,
पंचभूत तथा
मनुष्य। रुद्र ने लोक यज्ञ तथा मनुष्य यज्ञों से पांच हाथ लंबा धनुष बनाया। पुरोहित ही उसकी प्रत्यंचा थी।
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