2016-06-05

स्वामी और माँ

ओशो ने अपने सन्यासियों को "स्वामी" और सन्यासिन को "माँ" शब्द का सम्बोधन दिया ,,,, 

लेकिन ये कोई शाब्दिक सम्बोधन नहीं है ..... लेकिन बहुत से लोग इस सम्बोधन को मात्र सम्बोधन मान कर प्रयोग करते हैं जिसके कारण osho की दी हुई ये अति-गहन करुणा ... आज मज़ाक बन कर रह गयी है ... !
सबसे पहले तो इस सम्बोधन का वास्तविक अर्थ समझ लेते हैं ---

स्वामी -- स्वामी का अर्थ होता है मालिक .... लेकिन किसका ??? किसका मालिक क्या स्वामी होने से आप किसी के मालिक हो जाते हैं ....... नहीं ..... ओशो ने जब अपने सन्यासियों को स्वामी सम्बोधन दिया था तो उसका अर्थ था .... कि हर पुरुष मे परम संभावना है कि वो अपने अंदर बैठे उस तत्व को जगा सके जो सही अर्थो मे मालिक है ... स्वामी है .... स्वामी अपने आनंद का .... स्वामी अपनी इंद्रियो का .... स्वामी अपने कृत्यो का और उससे आने वाले सभी परिणामो का .... जब कोई इंसान/पुरुष अपने को पूर्ण रूप से जाग्रत कर पाता है तो वो हर जगह सम्राट जैसी गरिमा के साथ जीता है ... वो जो भी कर्म करता है उसमे वो मालिक होता है और उस कर्म से जो भी परिणाम आए सुख या दुख वो उसको भी उसी मालकियत के साथ स्वीकार करता है ..... ऐसा होता है स्वामी ...

लेकिन मैं देखता हूँ सभी सन्यासी एक दूसरे को कोस रहे हैं जो आनंद आता है उसके तो वो मालिक बनने लग जाते हैं लेकिन यदि कोई विषाद जन्म ले तो वो वहाँ पर मालिक नहीं होना चाहते ... मैं मानता हूँ मेरे सभी कर्म पूजा हैं और उनसे आने वाले सभी परिणाम ..... प्रसाद

ऐसे ही माँ शब्द का कुछ अर्थ था --

माँ -- किसी भी स्त्री की परम अवस्था माँ है .... माँ कोई शारीरिक घटना के साथ किसी बच्चे की माँ बनना नहीं है बल्कि जब कोई स्त्री अपने सभी संबंधो को या कहे अपनी पूरी जीवन शैली को गरिमा से भर पाती है तो वो माँ हो जाती है ... इसे समझने के लिए आपको ये जानना होगा ...... कि पुरुष का सबसे बड़ा रोग है अहंकार और स्त्री का सबसे बड़ा रोग है ... जलन .... जब कोई पुरुष अपने अहंकार को तिरोहित कर पाता है वो स्वामी हो जाता है .... और जब कोई स्त्री जलन से मुक्त होती है .... तो वो वास्तविक अर्थो मे माँ हो जाती है .... जैसे कोई भी माँ सबसे अधिक अपने बेटे से प्रेम करती है .... लेकिन एक दिन वो उसे पराई स्त्री(बहू) को सौप कर आनंदित हो जाती है जो बेटा रोज़ शाम माँ के पास आकार आनंदित होता था .... अब वही बेटा रोज़ शाम बहू के कमरे मे जाता है ... और माँ ये देख कर आनंदित होती है ..... ( जब्कि आप इसके विपरीत भी देखते होंगे कि माँ को बहू से जलन हो जाती है .... ये बात ये दर्शाती है कि वो सही अर्थो मे माँ नहीं बन पायी ) .... तो जब कोई सन्यासी किसी सन्यासिन को माँ कहकर बुलाता है तो भले ही उनके बीच सेक्स का संबंध ही क्यूँ न हो ... वो उस स्त्री मे माँ की संभावना को आवाज़ देता है .... और मैंने ऐसा महसूस किया है .... यदि आप किसी पूर्ण भाव के साथ शब्दो के सही सम्बोधन को इस्तेमाल करे तो उस इंसान मे जिसको आप संबोधित कर रहे हैं परिवर्तन आने आरंभ हो जाते हैं ..
                  
                                           
            ❤ Osho ❤
                                    


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