यह सूत्र अत्यंत बहुमूल्य है। एक—एक शब्द इसका ठीक से समझें!
‘तू सबका एक द्रष्टा है। एको द्रष्टाऽसि सर्वस्व! और सदा सचमुच मुक्त है।’
साधारणत: हमें अपने जीवन का बोध दूसरों की आंखों से मिलता है। हम दूसरों की आंखों का दर्पण की तरह उपयोग करते हैं। इसलिए हम द्रष्टा को भूल जाते हैं, और दृश्य बन जाते है। स्वाभाविक भी है।
अपना चेहरा तो दिखायी पडता नहीं, दर्पण खोजना होगा। जब तुम दर्पण में अपने को देखते हो तो तुम दृश्य हो गये, द्रष्टा न रहे। तुम्हारी अपने से पहचान ही कितनी है? उतनी जितना दर्पण ने कहा।
मां कहती है बेटा सुंदर है, तो बेटा अपने को सुंदर मानता है। शिक्षक कहते हैं स्कूल में, बुद्धिमान हो, तो व्यक्ति अपने को बुद्धिमान मानता है। कोई अपमान कर देता है, कोई निंदा कर देता है, तो निंदा का स्वर भीतर समा जाता है। इसलिए तो हमें अपना बोध बड़ा भ्रामक मालूम होता है, क्योंकि अनेक स्वरों से मिलकर बना है; विरोधी स्वरों से मिलकर बना है। किसी ने कहा सुंदर हो, और किसी ने कहा, ‘तुम, और सुंदर! शक्ल तो देखो आईने में!’ दोनों स्वर भीतर चले गये, द्वंद्व पैदा हो गया। किसी ने कहा, बड़े बुद्धिमान हो, और किसी ने कहा, तुम जैसा बुद्ध आदमी नहीं देखा—दोनों स्वर भीतर चले गये, दोनों भीतर जुड़ गये। बड़ी बेचैनी पैदा हो गयी, बड़ा द्वंद्व पैदा हो गया।
इसीलिए तो तुम निश्चित नहीं हो कि तुम कौन हो। इतनी भीड़ तुमने इकट्ठी कर ली है मतों की! इतने दर्पणों में झांका है, और सभी दर्पणों ने अलग—अलग खबर दी! दर्पण तुम्हारे संबंध में थोड़े ही खबर देते हैं, दर्पण अपने संबंध में खबर देते हैं।
तुमने दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम लंबे हो जाते हो; दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम मोटे हो जाते। दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम अति सुंदर दिखने लगते। दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम अति कुरूप हो जाते, अष्टावक्र हो जाते।
दर्पण में जो झलक मिलती है वह तुम्हारी नहीं है, दर्पण के अपने स्वभाव की है। विरोधी बातें इकट्ठी होती चली जाती हैं। इन्हीं विरोधी बातों के संग्रह का नाम तुम समझ लेते हो, मैं हूं! इसलिए तुम सदा कंपते रहते हो, डरते रहते हो।
लोकमत का कितना भय होता है! कहीं लोग बुरा न सोचें। कहीं लोग ऐसा न समझ लें कि मैं मूढ़ हूं! कहीं ऐसा न समझ लें कि मैं असाधु हूं! लोग कहीं ऐसा न समझ लें; क्योंकि लोगों के द्वारा ही हमने अपनी आत्मा निर्मित की है।
गुरजिएफ अपने शिष्यों से कहता था. अगर तुम्हें आत्मा को जानना हो तो तुम्हें लोगों को छोड़ना होगा। ठीक कहता था। सदियों से यही सदगुरुओं ने कहा है। अगर तुम्हें स्वयं को पहचानना हो तो तुम्हें दूसरों की आंखों में देखना बंद कर देना होगा।
मेरे देखे, बहुत—से खोजी, सत्य के अन्वेषक समाज को छोड़ कर चले गये—उसका कारण यह नहीं था कि समाज में रह कर सत्य को पाना असंभव है, उसका कारण इतना ही था कि समाज में रह कर स्वयं की ठीक—ठीक छवि जाननी बहुत कठिन है। यहां लोग खबर दिये ही चले जाते हैं कि तुम कौन हो। तुम पूछो न पूछो, सब तरफ से झलकें आती ही रहती हैं कि तुम कौन हो। और हम धीरे—धीरे इन्हीं झलकों के लिए जीने लगते हैं।
No comments:
Post a Comment