ख़ुद मिटे तो वो मिले
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बुद्ध के जीवन में उल्लेख है : एक गांव में यज्ञ हो रहा है और गांव का राजा एक बकरे को बलि चढ़ा रहा है। बुद्ध गांव से गुजरे हैं, वे वहां पहुंच गए। और उन्होंने उस राजा से कहा कि यह क्या कर रहे हैं? इस बकरे को चढ़ा रहे हो? , किसलिए? तो उसने कहा कि इसके चढ़ाने से बड़ा पुण्य होता है। तो बुद्ध ने कहा, मुझे चढ़ा दो तो और भी ज्यादा पुण्य होगा। वह राजा थोड़ा डरा। बकरे को चढ़ाने में कोई हर्जा नहीं, लेकिन बुद्ध को चढ़ाना! उसके भी हाथ-पैर कंपे।
और बुद्ध ने कहा कि अगर सच में ही कोई लाभ करना हो तो अपने को चढ़ा दो। बकरा चढ़ाने से क्या होगा? उस राजा ने कहा : ना, बकरे का कोई नुकसान नहीं है, यह स्वर्ग चला जाएगा। बुद्ध ने कहा यह बहुत ही अच्छा है, मैं स्वर्ग की तलाश कर रहा हूं, तुम मुझे चढ़ा दो, तुम मुझे स्वर्ग भेज दो। और तुम अपने माता-पिता को क्यों नहीं भेजते स्वर्ग और खुद को क्यों रोके हुए हो? जब स्वर्ग जाने की ऐसी सरल और सुगम तुम्हें तरकीब मिल गई तो काट लो गर्दन। बकरे को बेचारे को क्यों भेज रहे हो जो शायद जाना भी न चाहता हो स्वर्ग? बकरे को खुद ही चुनने दो कहां उसे जाना है। उस राजा को समझ आई। उसे बुद्ध की बात खयाल में पड़ी। यह बड़ी सचोट बात थी। आदमी ने सब चढ़ाया है–धन चढ़ाया, फूल चढ़ाए। फूल भी तुम्हारे नहीं–वे परमात्मा के हैं। वृक्षों पर चढ़े ही हुए थे। वृक्षों पर परमात्मा के चरणों पर ही चढ़े थे।
वृक्षों के ऊपर से उनको परमात्मा की यात्रा हो ही रही थी। वहीं तो जा रही थी वह सुगंध, और कहां जाती? तुमने उनको वृक्षों से तोड़ कर मुर्दा कर लिया। और फिर मुर्दा फूलों को जाकर मंदिर में चढ़ा आए। और समझे कि बड़ा काम कर आए। कभी धूप-दीप जलाए, कि कभी जानवर चढ़ाए, कि कभी आदमी भी चढ़ा दिए! अपने को कब चढ़ाओगे? और जो अपने को चढ़ाता है, वही उसे पाता है ।
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