2015-06-03

जीवन का राज

एक सूफी फकीर के पास एक युवक आया और उस युवक ने कहा कि क्या आप मुझे जीवन का राज समझाएंगे? मैं बहुत गुरुओं के पास गया हूं बहुत ठोकरें खाई हैं दर—दर की, बहुत धूल फांकी है राहों की; मगर कोई मुझे जीवन का राज नहीं समझा सका। और जिसने जो कहा वही मैंने किया। किसी ने कहा उलटे खड़े होओ तो उलटा खड़ा हुआ। किसी ने कहा यह मत खाओ तो वह नहीं खाया। किसी ने कहा ऐसे सोओ तो ऐसे सोया। पता नहीं कितनी—कितनी कवायदें करके आया हूं थक गया हूं! आपका किसी ने पता दिया तो आपके पास आ गया। जीवन का राज आप मुझे बताएंगे?


उस फकीर ने युवक को गौर से देखा और कहा बताऊंगा, लेकिन एक शर्त है। पहले मैं कुएं से पानी भरूंगा। युवक थोड़ा हैरान हुआ कि यह भी कोई… कुएं से पानी पहले भरूंगा, तुम भी साथ रहना और जब तक मैं पानी न भर लूं र तुम बीच में बोलना मत— यह शर्त है। जब मैं पानी भर चुकूं, फिर तुम बोल सकते हो। युवक ने कहा : यह भी कोई कठिन बात है, आप मजे से पानी भरो! मगर उसे थोड़ा शक हुआ कि यह आदमी पागल मालूम होता है। हम जीवन का राज पूछ रहे हैं! हम इतना महान प्रश्न और यह कहां की शर्त लगा रहा है!

युवक ने कहा? बिलकुल तैयार हूं आप कुएं से पानी भर लें। लेकिन थोड़ा शक तो हुआ ही कि यहां जीवन का राज मिलेगा कि कुछ.. यह आदमी कुएं में धक्का—वक्का न मार दे। यह अजीब सा आदमी मालूम होता है। और जब उस फकीर ने बाल्टी उठाई और रस्सी, तब तो उस युवक ने समझ लिया कि गए काम से, यह भी यात्रा बेकार हुई! और जरा कुएं से दूर ही खड़े रहना ठीक है, क्योंकि जो बाल्टी उसने देखी उसमें पेंदी थी ही नहीं। उसने कहा मारे गए! यह कब पानी भरेगा! यह तो इस जिंदगी क्या अनेक जिंदगी भी बीत जाएं…। यह मैं कहां की शर्त में हां भर दिया!

मगर सोचा कि चलो थोड़ी देर तो देखो, आना—जाना बेकार तो हो ही गया, अब इतनी दूर आ ही गए हैं, थोड़ी देर देखो, आखिर यह करता क्या है! दूर जरा खड़ा हो गया कुएं से, क्योंकि पास में कहीं हम देखने लगें और यह धक्का मार दे! और जीवन का राज तो एक तरफ रहे, जीवन भी जाए हाथ से!  और फकीर चला पानी भरने। रस्सी बांधी, कुएं में बाल्टी लटकाई। युवक खड़ा देखता रहा, चुप रहा, बड़ा संयम रखना पड़ा उसको। मन तो बार—बार हो रहा था कि कह दे कि भैया, तुम क्या हमें खाक जीवन का राज बताओगे, हम तुम्हें कम से कम पानी भरने का राज बता दें, जो हमें मालूम है! तुम कम से कम पानी भरना तो सीख लो, बाकी छोड़ो। मगर याद करके कि शर्त है, जरा चुप रहना ठीक है।

बड़ा संयम रखना पड़ा होगा। तुम सोचते हो ऐसी स्थिति में कैसा संयम रखना पड़ता है। बिलकुल अपने को बांधे खड़ा रहा। जबान और मुंह को बिलकुल जकड़े रहा कि निकल ही न जाए बात। जरा देख तो लूं कि यह करता क्या है। उसने खूब बाल्टी खड़खडाई कुएं में, नीचे झांक कर देखा, बाल्टी भरी दिखाई पड़ी, क्योंकि पानी में डूबी थी। फिर खींची। खाली की खाली बाल्टी ऊपर आई। फिर दुबारा डाली, फिर तिबारा डाली। बस जब तीसरी बार डाली तो उस युवक ने कहा कि जय राम जी! अब हम चले! यह तो पूरी जिंदगी में भी पानी भरेगा नहीं।

उस फकीर ने कहा कि तुम बीच में ही बोल गए। और राज मैंने बताने का पक्का कर लिया था। तुम्हारी मर्जी। रास्ता लगो।

रात भर युवक सो नहीं पाया, क्योंकि जिस ढंग से उस फकीर ने कहा कि तुम्हारी मर्जी, रास्ता लगो। वैसे हमने तय किया था कि जीवन का राज बता ही देंगे। हमारी तरफ से हम जो कर सकते थे हमने किया, भूमिका बना ली थी, मगर तुम बीच में बोल गए, शर्त तुमने तोड़ दी। तुम इतना संयम भी न रख सके, तो जाओ। जिस ढंग से उसने कहा था और उसकी आंखों में जो चमक थी, उसको भूल न सका रात भर सो न सका। करवटें बदलता रहा कि मैं थोड़ी देर और चुप रह जाता तो मेरा क्या बिगड़ता था! ऐसे भी जिंदगी खराब की, अगर वह दो—चार घंटे खराब भी करवाता तो क्या हर्जा था! हो सकता है इसमें कोई परीक्षा हो, पात्रता की परीक्षा हो, धैर्य की परीक्षा हो, प्रतीक्षा की परीक्षा हो! मैं चूक गया। और उसकी आंखें कहती हैं कि उसे कुछ पता है। उसकी आंखों के जलते दीये कहते हैं। उसके चेहरे पर कुछ बात है, जो मैंने कहीं और नहीं पाई!

सुबह ही सुबह भागा हुआ आया, पैरों पर गिर पड़ा! कहा, मुझे माफ करो, फिर कुएं पर चलो। और जितना भरना हो भरो, मै बैठा ही रहूंगा।

उस फकीर ने कहा कि सच बात तो यह है कि कुएं से पानी भरने में जो राज था वह मैंने तुमसे कह ही दिया है, अब बचा नहीं कुछ कहने को। अगर तुम बाल्टी में और उसकी पेंदी में ज्यादा न उलझे होते तो बात तुम्हारी समझ में आ गई होती। तृष्णा बेपेंदी की बाल्टी है। भरो, खड़खडाओ कुएं में खूब, खींचो, जिंदगी नहीं, अनेक जिंदगी खींचते रहो—खाली के खाली रहोगे! जब भी बाल्टी आएगी, खाली हाथ आएगी। कुएं बदल लो, इस कुएं से उस कुएं पर जाओ, उस कुएं से उस कुएं पर जाओ…। यही लोग कर रहे हैं। मगर कुओं का क्या कसूर? बाल्टी वही की वही। तू देख सका कि बाल्टी में पेंदी नहीं है, इसलिए पानी नहीं भरता है; पर तूने देखा कि तृष्णा में पेंदी है? अब जा, इस पर विचार कर। तृष्णा में भी पेंदी नहीं है।

शोरगुल क्या है तुम्हारे भीतर? वासनाओं का ही शोरगुल है। यह कर लूं वह कर लूं यह हो जाऊं वह हो जाऊं, यह पा लूं वह पा लूं—यही सब तो शोरगुल है तुम्हारे भीतर, यही तो बाजार भरा है! इसी बाजार के कारण तो तुम अपने को भी नहीं देख पा रहे हो। और अपने को ही नहीं देख पा रहे हो, इसलिए किसी को भी नहीं देख पा रहे हो। इसीलिए तो तुम अंधे हो। तुम्हारी आंखों पर धूल ही तुम्हारी तृष्णा की है। कितना दौड़ते हो, कुछ तो मिलता नहीं! अब रुको! अब यह कुएं से पानी भरना बंद करो! यह बाल्टी फेंको!

इस बाल्टी के फेंक देने का नाम ही ध्यान है। तृष्णारहित चैतन्य का नाम ध्यान है। क्योंकि जहां वासना नहीं है वहां विचार का जन्म ही नहीं होता। वासना के बीज में ही विचार के अंकुर निकलते हैं। विचार तो वासना का सहयोगी है, उसका साथ देने आता है

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