दुनिया शांत थी। बड़े धीरज से चल रही थी। रफ्तार नहीं थी, तनाव नहीं था, जल्दबाजी नहीं थी कहीं पहुंचने की, लौटने की भी कोई जल्दी न थी। जैसे समय काफी था, पर्याप्त था। सब समय में हो जाएगा। जितनी रफ्तार बढ़ती है, जितनी स्पीड बढ़ती है, उतना तुम्हारा तनाव बढ़ता है। क्योंकि रफ्तार के साथ तुम जल्दबाज होते चले जाते हो। एक-एक मिनिट की फिक्र है कि खो न जाए!
जल्दबाजी तुम किसी कारण से कर भी नहीं रहे हो, वह तुम्हारी बेचैनी के कारण हो रही है। तुम जल्दबाजी इसलिए नहीं कर रहे हो कि कहीं तुम्हें पहुंचना है। पहुंचने का पक्का हो जाए तो तुम्हारे मन में भी सवाल उठेगा कि पहुंचकर क्या करेंगे? तुम जल्दबाजी इसलिए कर रहे हो कि तुम बेचैन हो। और बेचैनी जल्दबाजी में भूल जाती है, व्यस्त हो जाती है। तो जितना बेचैन आदमी है, उतना जल्दबाजी में है। जितना जल्दबाजी में है, उतना बेचैन है। एक विसियस सर्कल, एक दुष्चक्र पैदा हो जाता है। उसमें तुम पागल ही होकर समाप्त होओगे।
धैर्य रखना। अधैर्य पागलपन की फसल का बोना है। और चांद अपने से पूरा हो जाता है, तुम्हें कुछ करना नहीं है। नदी अपने से सागर पहुंच जाती है, तुम्हें कुछ करना नहीं है। कोई नदी को धक्का दे-देकर सागर तक नहीं पहुंचाना है। और न चांद पर मेहनत कर-करके उसकी पूर्णिमा बनानी है। और जब यह प्रकृति पूरी की पूरी अपने आप चल रही है तो तुम अकेले कुछ अपवाद हो? तुम भी परमात्मा तक पहुंच जाओगे; वह तुम्हारी पूर्णिमा है। लेकिन जल्दी मत करना, धैर्य रखना। जितना होगा गहरा धैर्य, उतने जल्दी परिणाम आ जाते हैं। अगर धैर्य परिपूर्ण हो, इसी क्षण तुम पूर्णिमा के चांद हो जाओगे।
क्योंकि चांद तुम सदा हो। जब धैर्य पूरा होता है तो ध्यान पूरा हो जाता है। इस बात को ठीक से समझ लें। तुम हजार व्यस्तताएं पैदा मत करना। तुम हजार तनाव पैदा मत करना। तुम धीरज से बहना। तुम धीरे-धीरे बहना। चांद प्रगट होगा। पूर्णिमा अपने से आ जाती है।
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