(गणतंत्र दिवस पर हमारे एक नेताजी द्वारा सहज या असहज रूप से सलामी न देने के सन्दर्भ में एक कविता)
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सारे जग में हिन्द का डंका,बड़े सूरमा डोल गए,
देखो तो जय हिन्द का नारा ओबामा तक बोल गए,
अम्बर में लहराए तिरंगा,धरती पर पग ध्वनियाँ थीं,
राष्ट्रगीत की सुर लहरी थी,दंग देखती दुनिया थी,
जिस पल सब दे रहे सलामी,द्रश्य अजीब दिखाए थे,
नेताजी ने पीछे हाथ छुपाये थे,
कूल्हो से मस्तक तक केवल कुछ फुट की ही दूरी थी,
नही सलामी दे पाए वो ऐसी क्या मजबूरी थी,
आस पास जो खड़े हुए थे,वो सब हाथ उठाये थे,
सबका साथ निभाने में क्यों नेताजी घबराये थे,
10 लोगों के साथ कहो में अल्ला अकबर चिल्लाऊं,
अगर पडोसी राम राम बोले तो मैं भी दोहराऊँ,
दिल से नही सही पर सबका दिल रखने को कर लेते,
मज़हब वाली आँखों में कुछ राष्ट्रप्रेम भी भर लेते,
देश भक्ति के गीतों को सुन दिल में जोश जगा लेते,
कुछ पल के ही लिए सही पर थोडा हाथ उठा लेते,
लेकिन तुमसे नही हुआ ये,हमको अच्छा नही लगा,
वतनपरस्ती का ये ज़ज्बा हमको सच्चा नही लगा,
कब तक हम इस तंग नज़रिए पर यूँ ही रो पायेंगे,
कितने और मुसल्मा, फिर अब्दुल कलाम हो पायेंगे,
इक नेता था जिसकी वतनपरस्ती अब तक पुजती है
इक नेता हैं,जिन्हें शर्म जय हिन्द बोलकर लगती है,
नही झुका सर जिनका,आज तिरंगा ध्वजा फहरने पर,
नही झुकेगा अमर तिरंगा उन लोगों के मरने पर,
जिसे तिरंगे की महिमा पर झुकना तक स्वीकार नहीं,
नेता कहलाने का उस नेता को अधिकार नही,
.....कवि गौरव चौहान
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