2016-03-03

स्वामी दयानंद सरस्वती

स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने अपने जीवन-पर्यंत इस बात का प्रयास किया कि विश्वभर के सारे विद्वान एकमत होकर सर्वसम्मत धर्म को स्वीकार कर लें और विवादग्रस्त बातों को छोड़ दें। जिससे सर्वसाधारण उनका अनुकरण करके सुख-शांति और पारस्परिक प्रेम का जीवन व्यतीत कर सके। ‘उदार चरितानां तु वसुधैव कटुम्बकम्’ के अनुसार स्वामी जी के लिए सारा संसार ही अपना कुटुम्ब था कोई पराया न था। उनका विश्वास था कि वेदों को अब तक संजोए रखने वाली भारत की आर्य-जाति का सुधार हो जाने से संसार का कल्याण होगा। स्वामी जी प्राचीन काल के समान ही फिर संसार को वैदिक शिक्षा देकर संमार्ग पर लाने के आकांक्षी थे। इसीलिए उन्होंने सर्वप्रथम अपनी जन्मभूमि भारत को ही अपना कार्य-क्षेत्र बनाया।


स्वामी दयानंद सरस्वती 19वीं सदी के एक देदीप्यमान सितारे थे। उनके सभी आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य भारतवर्ष में सामाजिक तथा धार्मिक कार्यों में सुधार लाना था। वास्तव में बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ होते ही उनके इस महान उद्देश्य का परिवर्तित रूप भारती समाज के सम्मुख आने लगा।

उनके परिवार की पृष्ठभूमि धार्मिक गुणों से परिपूर्ण थी। जीवन के प्रारम्भिक कुछ वर्षों के अनुभव से प्रेरित होकर उन्होंने बारह वर्ष की आयु में सन् 1846 में संन्यासी बनने के लिए अपना घर-परिवार त्याग दिया था और दयानंद नाम ग्रहण किया। उन्होंने स्वामी विरजानंद के संरक्षण में शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की व मार्ग-दर्शन प्राप्त किया।

स्वामी दयानंद ने हिंदू धर्म में व्याप्त घोर अंधविश्वास व कुरीतियों को दूर करने के लिए सतत प्रयास किया, जैसे—मूर्ति-पूजा, अवतारवाद, बहुदेव, पूजा, पशुता का व्यवहार व विचार और अंधविश्वासी धार्मिक काव्य आदि। उन्होंने एकेश्वरवाद का प्रचार किया और अपने उत्तम विचार व्यक्त किए। ईश्वर सर्वज्ञ सर्वत्र व्याप्त, निर्विकार, रूप रहित, आकार रहित, दयालु और न्यायी है। वह विश्वास करते थे कि ईश्वर को समझा व जाना जा सका है; वह ईश्वर सर्वोच्च गुणों से युक्त है तथा भ्रांत रहित ईश्वर की पूजा से ही लोगों में नैतिकता का प्रादुर्भाव हो सकता है। स्वामी दयानंद की प्रेरणा वेद थे। यह विश्वास करते हुए कि ईश्वर अनंत है, उन्होंने पुनः वेदों के अध्ययन-मनन की ओर लोगों को लौटने की प्रेरणा देना प्रारंभ किया। उनका उद्देश्य भारत के अतीत को गौरवान्वित करना तथा लोगों की चेतना को अंतर्मन से जागृत करना था।

धर्म और जाति पर आधारित बहुत-सी बुराइयों तथा अंधविश्वास पर चोट करते हुए और उसके शुद्धिकरण के लिए स्वामी दयानन्द ने कहा कि जो अपने कार्य व व्यवहार से ब्राह्मण तुल्य व्यवहार करता है वही श्रेष्ठ है न कि जन्म जाति के आधार पर। उन्होंने जनसमूह को सच्चाई से अवगत कराया कि छुआछूत की भावना या व्यवहार एक अपराध है जो कि वेदों के सिद्धांत के विपरीत है।

बाल-विवाह का विरोध करते हुए वर-कन्या दोनों के विवाह की आयु क्रमशः पच्चीस व सोलह वर्ष की निश्चित की। उन्होंने विधवा-विवाह के लिए भी लोगों में उत्साह भरा। चरित्र-विकास के लिए शिक्षा महत्त्वपूर्ण है, यह विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने बालक-बालिकाओं की शिक्षा के प्रति जागरुकता उत्पन्न करने का कार्य किया।


स्वामी दयानंद सरस्वती जी सर्वदा सत्य के लिए जूझते रहे, सत्याग्रह करते रहे। उन्होंने अपने उद्देश्य-प्राप्ति के लिए कभी हेय और अवांछनीय साधन नहीं अपनाए। स्वामीजी ने आने वाली पीढ़ी के सोचने के लिए देश, जाति और समाज के सुधार, उत्थान और संगठन के लिए आवश्यक एक भी बात या पक्ष अछूता नहीं छोड़ा। वे प्रत्येक की पूर्ति के लिए मनसा, वाचा, कर्मणा मरण-पर्न्त प्रयत्नशील रहे उन्होंने अपने उपदेशों, लेखों द्वारा और लोगों के सम्मुख अपना पावन आदर्श तथा श्रेष्ठ चरित्र उपस्थित करके देश में जागृति उत्पन्न कर दी, जिससे भावी राजनीतिक नेताओं का कार्य बहुत ही सुगम व सरल हो गया। निस्संदेह स्वामी दयानंद सरस्वती राष्ट्र-निर्माता थे।

भारतीय स्वतंत्रता के अभियान में महर्षि दयानंद सरस्वती का बहोत बड़ा हात था. उन्होंने अपने जीवन में कई तरह के समाज सुधारक काम किये. और साथ लो लोगो को स्वतंत्रता पाने के लिए प्रेरित भी किया. आर्य समाज को स्थापित कर के उन्होंने भारत में डूब चुकी वैदिक परम्पराओ को पुनर्स्थापित किया और विश्व को हिंदु धर्म की पहचान करवाई. उनके बाद कई स्वतंत्रता सेनानियों ने उनके काम को आगे बढाया. और आज ऐसे ही महापुरुषों की वजह से हम स्वतंत्र भारत में रह रहे है.


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