2016-03-29

जीवन में पर्याप्त हो यह जरूरी नहीं

जीवन में पर्याप्त हो यह जरूरी नहीं पर जीवन में कुछ हो, इतना तो किया ही जा सकता है। जीवन मात्र ‘जीवन को अर्थ’ देने में एवं ‘जीवन के अर्थ’ को समझने में भी गुजार दिया जाए तो कम नहीं। सारा प्रयास मनुष्य बनने में भी लगा मान लिया जाए, तो भी यह कार्य हीरे तराशने से कम नहीं आंका जाना चाहिए। प्रकृति और मानव के पारस्परिक संबंध में केवल एक ही विमुखता है- प्रकृति में पर्याप्त है और मानव उससे असंतुष्ट। यह असंतोष विकराल रूप लेता हुआ कई और नए असंतोषों को कड़ी-दर-कड़ी में बांधता जाता है। जीवन इसी रोचक द्वंद्व पर टिका है- कि मनुष्य इस असंतोष से असमर्थता को समझते हुए विनम्रता ग्रहण करें या खुद में विनम्रता का संचार करते हुए अपना सामर्थ्य पहचानें।


विचारणीय है कि यह असंतोष ‘अभाव’ की संतान है और ‘अभाव’ में हम ‘अभाव क्या है’ और ‘किस बात का है’ इसे भी खूब पहचानते हैं। ‘हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले’, ........ कहीं ज़मीन तो कहीं आसमां नहीं मिलता’ आदि कुछ ऐसी काव्य-अभिव्यक्तियां हैं, जो जीवन में आए अभाव से उपजी प्रतीत होती हैं। क्या यह कहना गलत होगा कि ‘अभाव’ व्यक्ति को मांझता है, निखारता है?  भारतीय दार्शनिक परंपरा हर प्रकार के अनुभव को ज्ञान का रूप मानती है, बस अनुभव में नवीनता का अंश हो, नहीं तो वह स्मृति-मात्र है। ‘अभाव’ हमारे अनुभवों में ऐसे ही कुछ नव्य-कणों को जोड़ने का प्रयास करता है। हर अभाव ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करता है, या कहें कि ऐसे ज्ञान से सराबोर करता है, जिससे वह स्वयं को रूपांरित समझता है।
इस अर्थपूर्ण अभाव को झेलने का नैसर्गिक साहस हम सब में होता है पर मनीषी वही कहलाता है, जो शिव के समान हलाहल को भीतर समेटे रखता है। लक्ष्य चाहे ‘शिव’ होना न भी हो पर जिस ‘सम-भाव’ को, जिस ‘शिवता’ को इंगित करने का प्रयास हो रहा है-उतना भर तो हो ही सकता है। ‘द्वंद्व’ में गति है और जीवन भी कुछ द्वंद्व ही है। प्रत्येक द्वंद्व एक निर्णय लिए आता है। वह निर्णय स्थिति का निराकरण न भी हो, समाधान न भी हो तब भी वह हमें परिवर्तित कर जाता है। जीवन में किसी भी रूप से आए ‘अभाव’ को स्वीकार करने का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति दीन-हीन बन संकुचित बुद्धि होकर उससे बाहर आने का प्रयास न करें। ‘अभाव’ को स्वीकार करना ‘दैव’ व ‘भाग्य’ को स्वीकार करना नहीं है, अपितु अपने से संवाद स्थापित करने जैसा है और यह किसी पुरुषार्थ से कम नहीं हो सकता।

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