2016-03-10

तत्कालीन परिस्थिति पर कबीर का प्रभाव

तत्कालीन परिस्थिति पर कबीर का प्रभाव


कबीर ने अपने जीवन के निजी अनुभवों से जो कुछ सीखा था, उसके आलोक में तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, सांप्रदायिक तथा राष्ट्रीय व्यवस्था को देखकर हतप्रभ थे। वे इन स्थितियों में अमूल परिवर्तन लाना चाहते थे, लेकिन उनकी बातों को सुनने और मानने को कोई उत्सुक नहीं था। उनको सारा संसार बौराया हुआ लग रहा था।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्याना।


वे फरमाते हैं कि साधू जाति से नहीं, ज्ञान से पुज्यनीय बनता है।

कबीर बराबर प्रयत्नशील रहे कि दुखी, असहाय और पीड़ित जनता के बीच सुख- शांति का प्रसार हो एवं उनका जीवन सुरक्षित और आनंदमय हो। तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर उन्होंने अनुभव किया कि भक्ति के मार्ग पर मोड़कर ही जनता को खुशी प्रदान की जा सकती है। उन्होंने इस अस्र का ही सहारा लिया :-
कहे कबीर सुनो हो साधो, अमृत वचन हमार,
जो भल चाहो आपनी, परखो करो विचार,
आप अपन पो चीन्हहू, नख सिखा सहित कबीर,
आनंद मंगल गाव हु, होहिं अपनपो थीर।

कबीर संतप्त जनजीवन के बीच शांत बना देते थे। वे सुखी जीवन की कला भक्ति को बताते थे। कबीर के पास यही ज्ञान था, इसी ज्ञान के सहारे वे जनजीवन में हरियाली लाने का प्रयास करते रहे। वे कहते हैं कि अगर तुम अपनी भलाई चाहते हो, तो मेरी बातों को ध्यान से सुनो और उन पर अमल भी करो। वे हम मानव को सर्वप्रथम स्वयं को स्थिर करने, शांत होने, अपने को पहचानने एवं आनंद में रहने को कहते हैं। उनके अनुसार जब मानव मन के सारे विकारों को दूर करके शांत स्थिर चित्त से बैठेगा, तो वह हर प्रकार की विषम परिस्थिति से बचा रहेगा। इस प्रकार कबीर मानवतावादी है। मानव के सच्चे शुभचिंतक हैं :-

ओ मन धीरज काहे न धरै,
पशु- पक्षी जीव कीट पतंगा, सबकी सुध करे,
गर्भवास में खबर सेतु है, बाहा ओं विसरै।

रे मन, धैर्य रखो। भगवान सब जीव की सुध लेते हैं, तुम्हारी भी लेंगे। जब तुम नौ मास गर्भ में थे, तब भगवान ही रक्षा कर रहे थे। फिर अब वह तुम्हें कैसे भूल सकते हैं ? कबीर इस बात को महसूस का चुके थे कि जनता को सद्भावना, सहानुभूति और प्यार की जरुरत है। किसी भी मूल्य पर वह गरीब जनता के जीवन से रस घोलना चाहते हैं।

पानी बिच मीन प्यासी, मोहि सुन- सुन आवें हांसी।
घर में वस्तु न नहीं आवत, वन- वन फिरत उदसी।

कबीर साहब कहते हैं, भला जल में मछली रहकर प्यासी रह सकती है ? प्रत्येक मानव के भीतर ईश का वास है, जहाँ निरंतर आनंद- ही- आनंद है। इसी की खोज करना चाहिए। अन्यंत्र बारह घूमने या परेशान होने की कतई जरुरत नहीं है।

कस्तुरी कुंडल वसै, मृग ढ़ूढे वन माहिं,
ऐसे घर- घर राम हैं, दुनियां देखे नाहिं।

कस्तूरी मृग की नाभि में रहता है, लेकिन मृग अज्ञान- वश इसे जंगल में खोजता- फिरता है। इसी तरह सर्वशक्तिमान भगवान और आनंद मनुष्य के अपने अंतर हृदय में ही अवस्थित है, लेकिन अज्ञानी मानव सुख शांति की तलाश में बाहर अंदर घूमता रहता है, जो कि व्यर्थ है। कबीर भक्ति को आकर्षण दिखाकर लोगों के हृदय में शांति का संचार करना चाहते हैं।

दुरलभ दरसन दूर है, नियरे सदा सुख वास,
कहे कबीर मोहि समापिया, मत दुख पावै दास।

कबीर साहब व्यावहारिकता पर बल देते हैं। उनका सब सुझाव सीधा और अनुकरणीय है। वे मानव को सांसारिक प्रपंच से हटाकर अंतर्मुखी होने का सुझाव देते हैं। वे कहते हैं कि दूर का सोचना व्यर्थ है। समीपता में ही सुख का वास है।

परमातम गुरु निकट विराजै,
जाग- जाग मन मेरे,
धाय के पीतम चरनन् लागे,
साई खड़ा सिर तेरे।

उनकी उक्तिनुसार परमात्मा का वास अपने निकट ही है, अतः घबराने की कोई जरुरत नहीं है। आवश्यकता सिर्फ मन को जगाकर परमात्मा में लगाने की है। मानव को दौड़कर भगवान का चरण पकड़ लेना चाहिए, क्योंकि वे सिर के पास ही खड़े हैं। कबीर कहते हैं, आस्था और विश्वास में बहुत बल है। निर्बल जनता के बीच इसी भक्ति का बीजारोपण करने का प्रयास महात्मा कबीर ने किया है।

देह धरे का दण्ड है, सब काहु को होय,
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मुरख भुगते रोय।
सब काहू को होय।

महात्मा कबीर साहब कहते हैं कि सभी शरीर धारियों को इस संसार में अपने कर्मानुसार दुख उठाना ही पड़ता है। दुख की इस घड़ी में कतई घबड़ाना नहीं चाहिए, बल्कि शांतिपूर्वक दुख का सहन करना चाहिए। ज्ञानी जन अपने ज्ञान के बल पर इस दुख की मार को स्थिर चित्त से शांति पूर्वक भोग लेते हैं, लेकिन अज्ञानीजन दुख की मार से तिलमिला जाते हैं और रुदन करने लगते हैं। तत्कालीन परिस्थितियों के परिवेश में जनता को वे समझाते हैं कि तुम जिस भी स्थिति में हो, उसी में रहकर शांतिपूर्वक भगवान का ध्यान लगाओ। तुम्हारा दुख- दर्द सब दूर हो जाएगा। अपने मन को शुद्ध करने की आवश्यकता पर बल दो। 

जब लग मनहि विकारा, तब लागि नहीं छूटे संसारा,
जब मन निर्मल भरि जाना, तब निर्मल माहि समाना।

जब तक मन में विकार है, तब तक सांसारिक प्रपंच से छुटकारा पाना संभव नहीं है। शुद्धि के पश्चात ही भक्ति रस में मन रमता है और सांसारिक प्रपंच से मन शनै: शनै: हटने लगता है। वे कहते हैं, मन निर्मल होने पर आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा।

सबसे हिलिया, सबसे मिलिया, सबसे लिजिए
नोहा जी सबसे कहिऐ, वसिये अपने भावा जी।

वे कहते हैं सबसे मिलो जुलो, वर्तालाप करो, सबसे प्रेम करो, लेकिन अपना वास स्थान प्रभु में रखो।

कर से कर्म करो विधि नाना,
मकन राखो जहाँ कृपा निधाना।

संत तुलसी दास भी कहते हैं, ""हाथ से कर्तव्य करो, अपना कर्तव्य पूरा करो, लेकिन मन सर्वदा भगवान में लगाए रखो। आदर्श जीवन जीने की यहीं कला है, जिसकी ओर प्रायः सभी संतों ने आगाह किया है।

सुख सागर में आये के , मत जा रे प्यारा,
अजहुं समझ नर बावरे, जम करत निरासा।

महात्मा कबीर चेतावनी देते हैं कि इस संसार में आकर अपना जीवन व्यर्थ मत करो, रामरस पीकर अपने को तृप्त कर लो। कबीर साहब थोड़ा आक्रोश में आकर कहते हैं, अब भी संभल जाओ, होश में आओ और भक्ति में लग जाओ। भक्ति ही कल्याण का मार्ग मात्र है।

दास कबीर यो कहै, जग नाहि न रहना,
संगति हमरे चले गये, हमहूँ को चलाना।

महात्मा कबीर अपनापन के साथ हमें बतलाते हैं :-

यह संसार हम सबों के लिए चिरस्थायी निवास स्थान नहीं है। यहाँ से प्रत्येक मानव को एक न एक दिन जाना ही पड़ता है। हमारे बहुत संगी चले गए। कबीर के अनुसार मनुष्य कितना भी यशस्वी हो, कितना ही विद्वान हो, कितना ही व्यक्तित्व मुक्त हो, कितना ही समुद्धशाली हो, कितना ही विद्वान हो, मगर जब तक वह अपने अंदर छिपे हुए उस सुक्ष्मातिसुक्ष्म तत्व का अन्वेषण नहीं करता, उसकी प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करता, जब तक उसका जीवन व्यर्थ है :-
हरि बिन झूठे सब त्योहार, केते कोई करी गंगवार।
झूठा जप- तप झूठा गमान, राम नाम बिन झूठा ध्यान।

वे फरमाने हैं कि विवेक के निर्देशों का पालन करने वाले जीवन में असीम आनंद का प्रवाह होता है। विवेकी व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता, क्योंकि उसे अच्छी तरह ज्ञात है कि संसार की समस्त स्थितियाँ नश्वर एवं क्षणिक हैं। विवेक के संबंध में कबीर को स्पष्ट निर्देश है :-

मन सागर मनसा लहरि बूड़े बहे अनेक,
कह ""कबीर'' तो बाचहि, जिनके हृदय विवेक।

वे कहते हैं कि आनंद दूसरों को दुख देकर नहीं, बल्कि इच्छापूर्वक स्वंय दुख झेलने से ही प्राप्त होता है :-

आप ठग्या सुख उपजै,
और ठगया दुख होय।

उनके अनुसार ""धर्म में अभी भी इतनी क्षमता है कि मानव जाति को ऐसी बहुमुखी संपूर्णता की ओर ले जा सकते हैं, जिसमें हिंदू धर्म की आध्यात्मिक ज्योति, यहुदी धर्म की आस्था और आज्ञाकारिता, युनानी देवार्चन की सुंदरता, बौद्ध धर्म की काव्य करुणा, इसाई धर्म की दिव्य प्रीति और इस्लाम धर्म की त्याग भावना सम्मिलित हो।''


आज हमारा देश जिस संकट में घिरा है, उसका मूल कारण धर्म से विमुखता हो, जिसकी वजह से लोगों का सदाचार भी समाप्त हो गया है।

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