2015-04-13

ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा
किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा
मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे

जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा
आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा

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फुर्सत किसे है ज़ख्मों को सरहाने की,
निगाहें बदल जाती हैं अपने बेगानों की,
तुम भी छोड़कर चले गए हमें,
अब तम्मना न रही किसी से दिल लगाने की.

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तन्हाइयों के शहर में एक घर बना लिया,
रुसवाइयों को अपना मुक़द्दर बना लिया,
देखा है यहाँ पत्थर को पूजते हैं लोग,
हमने भी इसलिए अपने दिल को पत्थर बना लिया.

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मुझ से ऐ आईने मेरी बेकरारियाँ मत पूछ,
टूट जाएगा तू भी मेरी खामोशियाँ सुन के।


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