स्त्री और पुरुष दोनों के मिलने से 'मनुष्य' बनता है।
स्त्री और पुरुष दोनों के मिलने से नर-नारी की स्वाभाविक अपूर्णता दूर होती है।
नारी लक्ष्मी का अवतार है। धन,सम्पत्ति तो निर्जीव लक्ष्मी है, किन्तु स्त्री तो लक्ष्मी की सजीव प्रतिमा है~
1. गायत्री मन्त्र का सातवाँ अक्षर 'रे' गृह लक्ष्मी के रूप में नारी की प्रतिष्ठा की शिक्षा देता है। भगवान मनु के अनुसार जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं। उक्त कथन का भावार्थ यही है कि जहां नारी को उचित सम्मान दिया जाता है- उस स्थान में सुख,शान्ति का निवास रहता है।
2. सम्मानित और सन्तुष्ट नारी अनेक सुविधाओं एवं सुव्यवस्थाओं का घर बन जाती है, उसके साथ गरीबी में भी अमीरी का आनन्द बरसता है। अतः उसके समुचित आदर, सहयोग और सन्तोष का सदैव ध्यान रखा जाना चाहिए।
3. नारी में नर की अपेक्षा दयालुता, उदारता, सेवा, परमार्थ और पवित्रता की भावनाएं अधिक होती हैं।
4. नारी के द्वारा अनन्त उपकार और सहयोग प्राप्त करने के उपरान्त नर का यह पवित्र उत्तरदायित्व हो जाता है कि वह उसे स्वावलम्बी, सुशिक्षित, स्वस्थ, प्रसन्न और सन्तुष्ट बनाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। उसके साथ कठोर अथवा अपमान जनक व्यवहार किसी प्रकार उचित नहीं है।
6. इच्छाओं को उचित ढ़ंग से पूरा करने के स्थान पर उनका अनुचित रूप से दमन - मानसिक बीमारियाँ उत्पन्न करता है। अतः उचित शिक्षा एवं आध्यात्मिक विकास के पश्चात् किया हुआ विवाह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ठीक है। साधारणतया आजन्म अविवाहित रहने से मन की अनेक कोमल भावनाओं का उचित विकास एवं परिष्कार नहीं हो पाता।
7. विवाह वास्तव में पशुत्व से देवत्व की ओर बढ़ने का एक मार्ग है। बाल्यकाल के उपरान्त एकदम सन्यास धर्म में पहुँचना सबके लिए सरल नहीं और न अपेक्षित ही है। विवाह ही एक ऐसी बीच की अवस्था है जो मनुष्य को विरक्ति और भोग की अवस्था के ठीक बीचों बीच रखकर त्याग के साथ साथ ही सुख भोग की शिक्षा देती है।
8. मध्यम मार्ग इस वैवाहिक गृहस्थ जीवन में ही सम्भव है। यदि इसके मर्म को ठीक से समझ लिया जाए तो गृहस्थ जीवन से उत्तम और कोई स्थिति हो ही नहीं सकती। इसलिए विवाह एक पवित्र बन्धन है और विवाहित जीवन को योग्यता पूर्वक निबाहने में ही मनुष्य का आध्यात्मिक कल्याण है।
9. विवाह को आत्म विकास और चरित्र विकास का एक बड़ा साधन माना गया है। सफल विवाहित जीवन मनुष्य के सुख की एक आधार शिला है। अपने वैवाहिक साथी की परिस्थिति से पूर्ण आत्मीयता तथा उसे निरन्तर उत्साहित करते रहने की तत्परता- दाम्पत्य जीवन की साधारण बाधाओं को सहज ही में दूर कर देती है।
10. लोग इसे मनोवैज्ञानिक आदेश की भाँति ग्रहण करें कि जिस भी व्यक्ति ने अपने स्त्री या पुरुष साथी पर प्रभुत्व जमाना चाहा या उसकी निन्दा की तथा उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाई- उसने सदा के लिए अपने वैवाहिक आनन्द पर कुठाराघात कर लिया।
11. वास्तव में लोगों का वैवाहिक जीवन अधिक सफल होता यदि दम्पत्ति बाह्य आकर्षण और सुन्दरता पर आधारित प्रेम की बात कम सोचते तथा अपनी आर्थिक परिस्थिति, सन्तान पालन के सिद्धान्त, एक दूसरे की भावनाओं का समुचित ध्यान आदि आवश्यक विषयों पर गंभीर चिन्तन करके अपनी गृहस्थी चलाते।
12. विवाहित जीवन को सुखमय बनाने का सर्वोत्तम नियम यह है कि विवाह पूर्व पहले अपने साथी को भली-भांति समझ लीजिए और विवाह बाद उसे वही समझिए जो वह वास्तव में है और आदर्श कल्पना को त्याग कर उसी का सन्तोष पूर्वक प्रसन्नता के साथ उत्तम से उत्तम उपयोग कीजिए।
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