2015-08-03

सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण


सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण  !!!

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥

हे महाबाहो ! सत्व, रज और तम - ऐसे नामों वाले ये तीन गुण हैं। यहाँ रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द आदि की भाँति किसी द्रव्य के आश्रित गुणों का ग्रहण नहीं है। जैसे उपरोक्त रूपादि गुण द्रव्य के अधीन होते हैं वैसे ही सत्वादि गुण सदा क्षेत्रज्ञ के अधीन हुए ही अविद्यात्मक होने के कारण मानो क्षेत्रज्ञ को बाँध लेते हैं। उस क्षेत्रज्ञ को आश्रय बना कर ही ये गुण अपना स्वरुप प्रकट करने में समर्थ होते हैं, अतः "बाँधते हैं" ऐसा कहा जाता है।

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥

हे निष्पाप ! सत्वगुण स्फटिक - मणि की भाँति निर्मल होने के कारण, प्रकाशशील और उपद्रव रहित है तो भी वह बाँधता है। कैसे बाँधता है ? सुख की आसक्ति से। वास्तव में विषय रूप सुख का विषयी आत्मा के साथ "मैं सुखी हूँ" इस प्रकार सम्बन्ध जोड़ देना यह आत्मा को मिथ्या ही सुख में नियुक्त कर देना है। यही अविद्या है। इसी प्रकार यह सत्वगुण उसे ज्ञान के संग से भी बाँधता है। सुख की भाँति ही ज्ञान आदि के संग को भी बंधन करने वाला समझना चाहिए।

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥

अप्राप्त वास्तु की अभिलाषा का नाम "तृष्णा" है और प्राप्त विषयों में मन की प्रीति रूप स्नेह का नाम "आसक्ति" है। इस तृष्णा और आसक्ति की उत्पत्ति के कारण रूप रजोगुण को रागात्मक जान। वह रजोगुण, इस शरीरधारी क्षेत्रज्ञ को कर्मासक्ति से बांधता है। दृष्ट और अदृष्ट फल देने वाले जो कर्म हैं उनमें आसक्ति - तत्परता का नाम कर्मासक्ति है, उसके द्वारा बाँधता है।


तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥

और समस्त देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को, यानी जीवों के अंतःकरण में मोह - अविवेक उत्पन्न करने वाले तम नामक तीसरे गुण को तू अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान।  हे भारत ! वह तमोगुण, जीवों को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बाँधा करता है।

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥

हे भारत ! सत्वगुण सुख में नियुक्त करता है और रजोगुण कर्मों में नियुक्त करता है तथा तमोगुण, रजोगुण से उत्पन्न हुए विवेक - ज्ञान को अपने आवरणात्मक स्वभाव से आच्छादित करके फिर प्रमाद में नियुक्त किया करता है। प्राप्त कर्तव्य को न करने का नाम प्रमाद है।

(श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय - 14 , श्लोक - 5  से 9) 

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