2014-11-19

करोडों का घाटा


सेठ फोकटलाल मारे ख़ुशी के पगलाकर झूम रहे थे। ऐसा सुखद अनुभव आज से पहले कभी महसूस नहीं किया था। इसकी शुरुआत बाथरूम के नल से हुई थी। नल शायद अधखुला रह गया होगा। टपाक-टपाक उसमें से पानी टपक रहा था।


नल बंद करने के लिए वह बाथरूम में गए, तो उनकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं। नल में से टपाक-टपाक पानी की बूँदें नहीं, खननन-खननन सिक्के टपक रहे थे। संगमरमर के फ़र्श पर सिक्के गिरते और लुढ़कते चले जाते।




उन्हें भरोसा नहीं हुआ। यह कैसे मुमकिन है ? नल में से पानी के बजाए सिक्के टपकें ? इस बात की तसल्ली करने के लिए उन्होंने नल के नीचे हाथ धरा। टपाक से एक सिक्का उनकी हथेली पर आ गिरा और उन्हें एक विचार आया। पैसों से स्नान करने का उन्होंने तय कर लिया। नया तौलिया लेने के लिए वह बाथरूम से निकलकर बेडरूम में आए और आलमारी खोली।



यह क्या...? 
जैसे बाढ़ आई हो, ऐसे आलमारी में से उन पर प्रचंड वेग से नोट गिरे। वह दो क़दम पीछे हट गए। नोट सौ-सौ और पाँच-पाँच सौ के थे। उनके पाँवों में बिखरे पड़े थे। उन्हें लगा, वह पागल हो जाएँगे।



वह खिड़की के पास आए और उनका दिल हिचकोले खाने लगा। बाहर नोटों की बारिश हो रही थी। आकाश फटा हुआ था। मूसलाधार नोट बरस रहे थे। वह फटी आँखों से देखते रह गए।



‘‘अब तो खटिया छोड़ो !’’ 
शब्द उनके कानों से टकराए, मगर उन्होंने आँखें नहीं खोलीं, ‘‘उठिए न, पापा !’’ उनकी बेटी उन्हें झँझोड़कर जगा रही थी, ‘‘पूजा का समय निकला जा रहा है।’’ 
हड़बड़ाकर वह खड़े हो गए। पल-भर के लिए अपनी जवान बेटी को देखते रहे, फिर मुँह बिचकाकर बोले, ‘‘तेरी माँ ने तेरा नाम लक्ष्मी रखा, लेकिन तेरे क़दम पड़ने पर सपने में से भी लक्ष्मी ग़ायब हो जाती है।’’



‘‘ओह, तो आप सपना देख रहे थे।’’ 
‘‘मैं तो उठते-बैठते, सोते-जागते, सुबह-शाम, दिन-रात सपने ही देखता हूँ। आहाहा-हा...कितना बेशक़ीमती सपना था ! कम से कम एक करोड़ रुपयों का होगा और तुमने आकर उसका सर्वनाश कर डाला। सवेरे-सवेरे मुझे एक करोड़ का घाटा हो गया।’’



‘‘लेकिन वह सपना था,  !’’ 

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