2014-11-12

संतोष

एक व्यक्ति के पास दो मंजिला मकान है। उसके घर के दायीं ओर एक पांच मंजिला मकान है और बायीं तरफ एक झोपड़ी। जब वह दायीं ओर देखता है तो अपने भाग्य को कोसते हुए दुखी होता है और जब बायीं ओर देखता है तो खुश होता है। देखा जाए तो उस व्यक्ति की खुशी या दुख केवल मस्तिष्क जनित है। हम में से बहुत से लोग मन ही मन हर इंदिय सुख को सुखी जीवन से जोड़ते हैं।

 कुछ विचारकों का मानना है कि सुख केवल इंद्रिय विषयक नहीं है यानी उपभोग की वस्तुओं में नहीं है। इसी तरह असुख या दुख भी हमारे मन की कल्पना मात्र है।



हमारे जीवन में असंतोष का एक कारण लोभ भी है। यदि मन में किसी चीज का लोभ है तो निश्चित ही जीवन में कभी तृप्ति नहीं मिल सकती। विद्वानों का मत है कि अपने असंतोष पर विचार करते समय हमें उन अभावग्रस्त लोगों की ओर भी देखना चाहिए जिन्हें एक समय का भोजन भी नसीब नहीं है। उनके पास न पहनने को है, न रहने को।

 यदि हम केवल सफल और समृद्ध लोगों को देखेंगे तो हम हमेशा दुखी रहेंगे। विडंबना यह है कि जिनके पास सब कुछ होता है, वे भी अपनी स्थिति से असंतुष्ट रहते हैं। 

ज्ञानीजन यह भी कहते हैं कि अनेक विषयों और सुखों से उत्पन्न आनंद कभी भी वास्तविक सुख या आनंद नहीं होता। आनंद का अर्थ है मन का शांत रहना और चित्त में किसी भी तरह की चिंता का नहीं होना। जब हम इंदिय सुख के कारण आनंदित होते हैं तो ऐसे आनंद की वजह केवल इंद्रियों को मिलने वाला सुख ही होता है। इस तरह की संतुष्टि या सुख केवल नाम का सुख होता है।

 सचाई यह है कि सच्चा संतोष मनोरथों को पूरे करने में नहीं है। महर्षि दयानंद सरस्वती संतोष सुख को मुक्ति जैसा सुख मानते हैं। अर्थात मुक्ति में जैसा सुख मिलता है, वैसा ही सुख संतोष का है।

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