भोपाल।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 30 वर्ष पहले हुई गैस
त्रासदी की भयावह दास्तां आज भी लोग नहीं भुला पाए हैं, क्योंकि
उन्हें वे सुविधाएं हासिल ही नहीं हो सकी हैं जो जख्मों को सुखा सकें। अलबत्ता
उन्हें लगता है कि वक्त गुजरने के साथ जख्म हरे होते जा रहे हैं। झीलों की नगरी
भोपाल के लिए दो-तीन दिसंबर 1984 की रात काल बनकर आई थी।
उस रात यूनियन कार्बाइड संयंत्र से रिसी जहरीली गैस ने तीन हजार से ज्यादा लोगों
को मौत की नींद सुला दिया था, वहीं लाखों लोगों को
बीमारियों का तोहफा दिया था। उसके बाद भी गैस का शिकार बने लोगों की मौत का
सिलसिला जारी रहा है।
3 दिसम्बर 1984 सुबह यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर 'सी' में हुए रिसाव से
बने गैस के बादल को हवा के झोंके अपने साथ बहाकर ले जा रहे थे और लोग मौत की नींद
सोते जा रहे थे.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर
तीन हज़ार लोग मारे गए थे. हालांकि ग़ैरसरकारी स्रोत मानते हैं कि ये संख्या करीब
तीन गुना ज़्यादा थी. मौतों का ये सिलसिला बरसों चलता रहा. इस दुर्घटना के शिकार लोगों की संख्या हज़ारों तक बताई जाती है.
गैस का रिसाव - यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी से करीब 40 टन गैस का रिसाव हुआ था. इसकी वजह थी टैंक नंबर 610 में
ज़हरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का पानी से मिल जाना. इससे हुई रासायनिक प्रक्रिया की वजह से टैंक में दबाव पैदा हो गया
और टैंक खुल गया और उससे रिसी गैस ने हज़ारों लोगों की जान ले ली.
सबसे बुरी तरह प्रभावित हुई कारखाने के पास स्थित झुग्गी बस्ती. वहाँ हादसे का शिकार हुए वे लोग जो रोज़ीरोटी की तलाश में दूर-दूर
के गाँवों से आ कर वहाँ रह रहे थे. अधिकांश व्यक्ति
निद्रावस्था में ही मौत का शिकार बने. लोगों को मौत की नींद सुलाने में विषैली गैस
को औसतन तीन मिनट लगे.
ऐसे किसी हादसे के लिए कोई तैयार नहीं था. यहाँ तक कि कारखाने का
अलार्म सिस्टम भी घंटों तक बेअसर रहा जबकि उसे बिना किसी देरी के चेतावनी देना था.
हाँफते और आँखों में जलन लिए जब प्रभावित लोग अस्पताल पहुँचे तो
ऐसी स्थिति में उनका क्या इलाज किया जाना चाहिए, ये डॉक्टरों को मालूम ही नहीं था.
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