मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम ध्यान को बैठते हैं, तो नींद आ जाती है। आ ही जाएगी। ताकत भी तो बचनी चाहिए थोड़ी-बहुत। लास्ट आइटम समझा हुआ है ध्यान को! जब सब कर चुके, सब तरह की बेवकूफियां निपटा चुके–लड़ चुके, झगड़ चुके, क्रोध कर चुके; प्रेम-घृणा, मित्रता-शत्रुता– सब कर चुके, कौड़ी-कौड़ी पर सब गंवा चुके।
जब कुछ भी नहीं बचता करने को, रद्दी में दो पैसे का खरीदा हुआ अखबार भी दिन में दस दफे चढ़ चुके। रेडियो का नाब कई दफा खोल चुके, बंद कर चुके। वही बकवास पत्नी से, बेटे से, जो हजार दफा हो चुकी है, कर चुके। जब कुछ भी नहीं बचता है
करने को, तब एक आदमी सोचता है कि चलो, अब ध्यान कर लें। तब वह आंख बंद करके बैठ जाता है!
इतनी इंपोटेंस से, इतने शक्ति-दौर्बल्य से कभी ध्यान नहीं होने वाला है। भीतर आप नहीं जाएंगे,
नींद में चले जाएंगे। शक्ति चाहिए भीतर की यात्रा के लिए भी। इसलिए आत्म-ज्ञान की तरफ जाने वाले व्यक्ति को समझना चाहिए, एक-एक कण शक्ति का मूल्य चुका रहे हैं आप, और बहुत महंगा मूल्य चुका रहे हैं।
जब एक आदमी किसी पर क्रोध से भरकर आग से भर जाता है, तब उसे पता नहीं कि वह क्या गंवा रहा है! उसे कुछ भी पता नहीं कि वह क्या खो रहा है! इतनी शक्ति पर, जिसमें उसने सिर्फ चार गालियां फेंकीं, इतनी शक्ति को लेकर तो वह गहरे ध्यान में कूद सकता था।
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