चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोये
दुइ पाटण के बीचमें साबुत बचा न तोये ।
इस चक्की से बचने का एक ही मार्ग है, इस चक्की से बाहर निकलना , अर्थात जन्म - मृत्यू से मुक्ति पा लेना, द्वैत से अद्वैत की ओर जाना । पर किसका ध्यान है यहाँ पर, लोग चक्की में पीसे जाने को जीवन मान लेते है और सुख - दुःखादी, प्रेम - क्रोध, त्याग - मोहादि द्वंद्वो के भ्रम में जिते है, कोई इससे छुटकारा पाने के लिए गुरू को शरण नहीं जाता । सचमें ऐसे मूढ लोगों को देखकर संतों को बडा दुःख होता है
दुइ पाटण के बीचमें साबुत बचा न तोये ।
अर्थ - 'जीवन - मरण की यह अविरत चलनेवाली चक्की' देखकर और इस चक्की में पीसते हुए लोग देखकर संत कबीरजी का हृदय द्रवित होता है, दया से भर जाता है । जन्म - मरण की इस चक्की के '2 पाटण है एक माया , दुसरा ब्रह्म' । इन 2 पाटणों से बनी द्वैतमयी चक्की में सभी मनुष्य पीसे जा रहे है ।
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