2015-03-16

लाओत्से कहता है बुद्धिमत्ता छोड़ो

लाओत्से कहता है, ज्ञान भी छोड़ो। यह जानना भी छोड़ो। क्योंकि यह जानना और न जानना एक द्वंद्व है। यह भी एक संघर्ष है। यह भी छोड़ो।


यह भी हम मान ले सकते हैं। बुद्ध ने भी कहा है, जान कर क्या होगा? शास्त्र जान लिए, तो क्या होगा? जानने का सवाल नहीं है, प्रज्ञा बढ़नी चाहिए; अंतर-बोध बढ़ना चाहिए। समझ, अंडरस्टैंडिंग बढ़नी चाहिए। बुद्धिमत्ता ज्ञान का सार है। जैसे फूलों को निचोड़ कर इत्र बन जाए, सार। ऐसे समस्त अनुभव, समस्त ज्ञान का जो सार है, वह बुद्धिमत्ता है। बुद्धिमत्ता एक सुगंध है। हजार ज्ञान निचुड़ें, तो बूंद भर बुद्धिमत्ता बनती है।

लेकिन लाओत्से कहता है, बुद्धिमत्ता भी छोड़ो। तो बहुत कठिन मालूम होता है। सूचना छोड़ें, समझ में आ सकता है; उधार है। ज्ञान भी छोड़ दें, समझ में आ सकता है; क्योंकि द्वंद्व है ज्ञान और अज्ञान का। यह बुद्धिमत्ता भी छोड़ दें, तो तत्काल हमारा मन कहेगा, पत्थर की भांति हो जाएंगे। फिर हममें और जड़ में फर्क क्या होगा? फिर आप जिस कुर्सी पर बैठे हैं, उसमें और आप में फर्क क्या होगा?


लेकिन हमारा यह जो मन सवाल उठाता है, यह लाओत्से को समझने में कठिनाई पैदा करेगा।
लाओत्से कहता है, बुद्धिमत्ता छोड़ो। इसका अर्थ क्या है? लाओत्से कहता है, जो चीज पकड़ी जा सकती है, छोड़ी जा सकती है, वह तुम्हारी है ही नहीं। जो तुम छोड़ ही न सकोगे, वही बुद्धिमत्ता है। बाकी तुम सब छोड़ो। जो तुम छोड़ सकते हो, छोड़ते चले जाओ। एक घड?ी ऐसी आएगी कि तुम कहोगे, अब मेरे पास छोड़ने को कुछ बचा ही नहीं--धन नहीं, मकान नहीं, जानकारी नहीं, स्मृति नहीं, ज्ञान नहीं, कोई बुद्धिमत्ता नहीं, कोई अनुभव नहीं। जिस क्षण तुम कह सकोगे कि अब मेरे पास कुछ भी नहीं है, जिसे मैं छोड़ सकूं; लाओत्से कहता है, इसे शब्द देना उचित नहीं, पर यही बुद्धिमत्ता है।

जिस बुद्धिमत्ता को छोड़ने से आप डरते हैं कि छोड़ने से मैं जड़ जैसा हो जाऊंगा, वह बुद्धिमत्ता है ही नहीं। ठीक से समझें, तो इसका अर्थ यह होता है कि जो छोड़ी ही नहीं जा सकती, वही बुद्धिमत्ता है। इसलिए लाओत्से बेफिक्री से कहता है, बुद्धिमत्ता छोड़ो। क्योंकि जो तुम छोड़ सकोगे, वह बुद्धिमत्ता नहीं थी। बुद्धिमत्ता, लाओत्से के हिसाब से, स्वभाव है। वह छोड़ा नहीं जा सकता। जो भी छोड़ा जा सकता है, वह स्वभाव नहीं है।
लाओत्से कहता है, आत्यंतिक रूप से वही बच जाए, जो मैं हूं। कोई संग्रह मेरे ऊपर न रहे। दूसरे का ज्ञान तो छोड़ ही दो; अपने ज्ञान को भी क्या ढोना, उसे भी छोड़ दो। दूसरे के अनुभव तो उधार हैं ही, अपने अनुभव भी मृत हैं। मैंने जो कल जाना था, वह आज मुर्दा हो गया। मैंने जो कल जाना था, उसका जो सार है, वह मेरी बुद्धिमत्ता है। वह भी अतीत हो गया, व्यतीत हो गया। छोड़ो उसे भी, राख है।


अंगार जलता है, तो राख इकट्ठी होती है। कभी आपने खयाल किया कि जो अभी राख है, वह भी थोड़ी देर पहले अंगार थी। कहीं बाहर से नहीं आई है, अंगार का ही हिस्सा है। लेकिन अगर अंगार को जलता हुआ रहना है, तो राख को छोड़ते जाना है।


लाओत्से कहता है, तुम्हारी बुद्धिमत्ता भी तुम्हारे स्वभाव पर राख है; तुमसे ही आती है। तुम अंगार हो। राख को भी झाड़ते चले जाओ। सिर्फ प्रज्वलित अग्नि रह जाए; सिर्फ तुम्हारा स्वभाव रह जाए। उस पर कुछ भी न हो। दूसरे के द्वारा डाली गई राख और अपने ही अंगार से पैदा हुई राख में भी क्या फर्क है? क्या इसी कारण कि यह राख मुझसे पैदा हुई है, प्यारी है, और इससे चिपके रहो।


आप पचास साल जीए हैं, तो पचास साल के अनुभव की राख आपके पास इकट्ठी हो गई है। इसमें जो आपने दूसरों से सीखा, वह सूचना है, इनफरमेशन है। इसमें जो आपने अपने से जाना, वह नालेज है, ज्ञान है। ज्ञान और सूचना, सब के तालमेल से जो निचोड़, जो एसेंस, जो सुगंध आपके भीतर पैदा हो गई, वह आपकी बुद्धिमत्ता है। लाओत्से कहता है, इसे भी छोड़ो। तुम सिर्फ वही रह जाओ, जो तुम हो--निपट तुम्हारे स्वभाव में। नेकेड नेचर, शुद्धतम वही रह जाए, जो है। इसको महावीर आत्मा कहते हैं। इसको बुद्ध शून्यता कहते हैं। ये शब्दों के फासले हैं। लाओत्से इसको सिर्फ स्वभाव कहता है; ताओ कहता है। 


"छोड़ो बुद्धिमत्ता, ज्ञान को हटाओ! और लोग सौ गुना लाभान्वित होंगे।'


अगर लोग निपट अपने स्वभाव में थिर हो जाएं, तो उनके जीवन से दुख, पीड़ा, बेचैनी, बोझ, तनाव, चिंता, सभी विसर्जित हो जाएंगे; तब वे निर्दोष खिल जाएंगे अपने में। लोग लाभान्वित होंगे, अगर यह सारा ज्ञान, जानकारी, बुद्धिमानी, पांडित्य, यह सारा बोझ हट जाए। यह सारे अनुभव की शृंखला हट जाए और चेतना, आत्मा--या जो भी नाम हम देना पसंद करें--वह जो हमारे भीतर छिपा है सत्व, वह अपनी निजता में रह जाए, उसके ऊपर कुछ भी न हो, खाली, शुद्ध, जिसको हाइडेगर ने अभी-अभी प्योर बीइंग कहा है, उसकी ही बात लाओत्से कर रहा है, लोग हजार गुना लाभान्वित होंगे।
हम तो सोचते हैं, लोगों का जितना ज्ञान बढ़ेगा, अनुभव बढ़ेगा, जानकारी बढ़ेगी, बुद्धिमानी बढ़ेगी, उतना लाभ होगा। लाओत्से उलटी बात कह रहा है। असल में, जितना ज्ञान बढ़ेगा, जानकारी बढ़ेगी, बुद्धिमानी बढ़ेगी, उतना ही आपके स्वभाव पर पर्त दर पर्त राख इकट्ठी होती चली जाएगी। आपका अंगारा राख की पर्तों में खो जाएगा। खुद तक पहुंचना मुश्किल हो जाएगा। इतने वस्त्र हो जाएंगे शरीर पर कि शरीर तक पहुंचना मुश्किल हो जाएगा।


आमतौर से हर आदमी प्याज की गांठ की भांति है। पर्त-पर्त उखाड़ते चले जाएं, दूसरी पर्त निकल आती है। और उखाड़ें, तीसरी पर्त निकल आती है। आप अनुभव, ज्ञान, जानकारी, समझ, शिक्षा, संस्कार, सभ्यता, संस्कृति, इन सबकी पर्तों का एक जोड़ हैं। आप कहां खो गए हैं, कुछ पता नहीं है। आदमी अपने वस्त्रों में ही खो जाता है। लाओत्से कहता है, हटा दो सब वस्त्र! रह जाए वही, जिसे तुम हटा ही न सको। बस एक ही उसकी शर्त है कि जिसे तुम हटा ही न सको, वही रह जाए। तब तुम वस्तुतः लाभान्वित होओगे। अन्यथा बड़ी से बड़ी हानि जगत में एक ही है--स्वयं को खो देना।


इस सूत्र का नाम है: स्वयं को जानो। अंग्रेजी में नाम और भी सुंदर है: रियलाइज दि सिंपल सेल्फ। "सिंपल' विचारणीय है--सरल, सहज। स्वयं को जानो में थोड़ी सी असहजता है।


जीसस या सुकरात शब्द का उपयोग करते हैं: नो दाई सेल्फ--स्वयं को जानो। उपनिषद उपयोग करते हैं: स्वयं को जानो, आत्मविद बनो। लाओत्से कहता है: दि सिंपल सेल्फ। अध्यात्मवादियों की आत्मा नहीं, सिद्धांतवादियों की आत्मा नहीं, ज्ञानियों की, पंडितों की आत्मा नहीं, दि सिंपल सेल्फ, वह सरल सी आत्मा जो अज्ञानियों के भीतर भी है। कोई बड़े सिद्धांत की, शास्त्र की बात नहीं, सरलतम तुम जो हो--नग्न, सहज--वही, उसे ही जानो। लेकिन उसे जानना हो, तो तुम जो भी जानते हो, उसे हटाओ। जो भी अब तक जाना है, उसे अलग कर दो। सब प्याज के छिलके अलग निकाल डालो। जब निकालने को कुछ भी न बचे, शून्य रह जाए, तभी तुम जानना कि अब सहज स्वभाव, सिंपल सेल्फ के करीब आए। -

No comments:

Post a Comment