लोहड़ी का त्योहार
वर्ष की सभी ऋतुओं पतझड, सावन और बसंत में कई तरह के छोटे-बड़े त्योहार मनाए जाते हैं, जिन में से एक प्रमुख त्योहार लोहड़ी है जो बसंत के आगमन के साथ 13 जनवरी, पौष महीने की आखरी रात को मनाया जाता है। इसके अगले दिन माघ महीने की सक्रांति को माघी के रूप में मनाया जाता है।
लोहड़ी का त्योहार मकर संक्रान्ति से एक दिन पूर्व 13 जनवरी को मनाया जाता है। लोहड़ी से सम्बन्धित कई तरह की लोक कथाएँ हैं। ये लोक कथाएँ धार्मिक न होकर सांस्कृतिक अधिक हैं। लोहड़ी मौसम या फ़सलों के कटान या सूर्य के उत्तरायण पक्ष की ओर जाने से जुड़ी हैं।
लोहड़ी का सम्बन्ध फ़सल कटाई से भी जोड़ा गया है। गन्ने की कटाई का समय लोहड़ी या उसके आस पास ही होता है याने जनवरी – मार्च। सामान्यतः गन्ने की बुवाई भी जनवरी – मार्च में की जाती है। इन दिनों गाजर, मूली, मेथी, पालक की फ़सल भी कट कर बाज़ार में आने लगती हैं। इस सीज़न में गुड़, मूँगफली, गज्जक और रेवड़ी का भी आनन्द लिया जा सकता है।
लोहड़ी से अगले दिन याने माघ महीने से किसानों का नया साल या नया वित्तीय वर्ष भी चालू होता है। खेतों का लगान और बटाई के सौदे भी इसी दिन किये जाते हैं। लोहड़ी मनाने में इस कारण का भी योगदान है। मकर संक्रान्ति याने 14 जनवरी से सूर्य देवता भी उत्तरायण की ओर प्रस्थान कर जाते हैं और लोहड़ी की आंच में मौसम बदलने का संदेश दे जाते हैं। ठिठुरती सर्दी से छुटकारा पाने का कारण भी इस में जोड़ा गया है।
लोहड़ी के दिन गाँव के लड़के-लड़कियाँ अपनी-अपनी टोलियाँ बना कर घर-घर जा कर लोहड़ी के गाने गाते हुए लोहड़ी माँगते हैं। इन गीतों में दुल्ला भट्टी का गीत 'सुंदर, मुंदरिये हो,तेरा कौन विचारा हो...' , 'दे माई लोहड़ी, तेरी जीवे जोड़ी' , 'दे माई पाथी तेरा पुत्त चड़ेगा हाथी' आदि प्रमुख हैं। लोग उन्हें लोहड़ी के रूप में गुड, रेवड़ी, मूँगफली, तिल या फिर पैसे भी देते हैं। यह टोलियाँ रात को अग्नि जलाने के लिए घरों से लकडियाँ, उपलें आदि भी इकट्ठा करती हैं, और रात को गाँव के लोग अपने मुहल्ले में आग जला कर गीत गाते, भांगडा-गिद्धा करते, गुड, मूँगफली, रेवड़ी, धानी खाते हुए लोहड़ी मनाते हैं। अग्नि में तिल डालते हुए 'ईशर आए दलिदर जाए, दलिदर दी जड चुल्हे पाए' बोलते हुए अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हैं।
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