जीवन को सरल सुखमय बनाने हेतू श्रीरामचरितमानस के जीवनोपयोगी
दोहे
श्रीरामचरितमानस
के जीवनोपयोगी दोहे एवं उनके अर्थ
श्रीरामचरितमानस
के रचयिता पं श्रीतुलसीदासजी अपने शिक्षाप्रद दोहों और चौपाईयों के लिए जाने जाते
हैं | वे
मर्यादा पुरषोत्तम भगवान श्री राम के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते हैं। कहा
जाता है कि वे एक मात्र ऐसे इंसान हैं जिन्होंने कलियुग में श्रीरामजी का उनके
परिवार सहित दर्शन किया है। तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में कई ऐसे दोहे लिखे
हैं जो किसी के भी जीवन को सरल सुखमय बनाने में सहायक हो सकते हैं।
ऐसा ही एक दोहा है जिसमें ये बताया गया है कि यदि ये तीन प्रकार के लोग आपसे मीठा बोलते हैं तो वो आपके लिए विष के सामान सिद्ध हो सकता है।.
सचिव बैद गुरु तीनि जौं
प्रिय बोलहिं भय आस।|
राज धर्म तन तीनि कर
होइ बेगिहीं नास।।
अर्थ-
गोस्वामीजी कहते हैं कि मंत्री,वैद्य और गुरु ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से (हित की बात न कहकर) प्रिय
बोलते हैं, तो
राज्य, शरीर
और धर्म इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है। अतएव
इन तीनों में से कोई भी आप से मीठा बोले तो तुरंत सर्तक हो जाएं और अपने
विवेक से सही और गलत का निर्णय लें। अंधविश्वास न करें।
दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छांडि़ए जब
लग घट में प्राण।।
अर्थ-
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं - मनुष्य को दया कभी नहीं छोडऩी चाहिए, क्योंकि दया ही धर्म का मूल है और
इसके विपरीत अहंकार समस्त पापों की जड़
होता है।
तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुं ओर।
बसीकरन इक मंत्र है
परिहरू बचन कठोर।।
अर्थ-
तुलसीदासजी कहते हैं कि मीठे वचन सब ओर सुख फैलाते हैं। किसी को भी वश में करने का ये एक मंत्र होते
हैं। इसलिए मानव को चाहिए कि कठोर वचन छोड़कर मीठा बोलने का प्रयास करें।
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुं
जौं चाहसि उजिआर।।
अर्थ
- तुलसीदासजी कहते हैं- हे मनुष्य यदि तुम भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहते हो
तो मुखरूपी द्वार की जीभ रुपी दहलीज़ पर राम-नामरूपी मणि को रखो।
नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सिमरत भयो भांग ते
तुलसी तुलसीदास।।
अर्थ
- राम का नाम कल्पतरु (मनचाहा पदार्थ देनेवाला )और कल्याण का निवास (मुक्ति
का घर ) है,जिसको
स्मरण करने से भांग सा तुलसीदास भी तुलसी के समान पवित्र हो गया।
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर केकिहि पेखु बचन
सुधा सम असन अहि।।
अर्थ-
गोस्वामीजी कहते हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मूर्ख अपितु चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। सुंदर मोर
को ही देख लो उसका वचन तो अमृत के समान है लेकिन आहार सांप का है।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु
कायर कथहिं प्रतापु।।
अर्थ
-शूरवीर तो युद्ध में शूरवीरता का कार्य करते हैं, कहकर अपने को नहीं जताते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पा कर
कायर ही अपनी वीरता की डिंग मारा करते हैं।
सहज सुहृद गुर स्वामी सिख जो न करइ सिर मानि।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि
होइ हित हानि।।
अर्थ-
स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह
हृदय में खूब पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है।
मुखिया मुखु सो चाहिए खान पान कहुं एक।
पालइ पोषइ सकल अंग
तुलसी सहित बिबेक।।
अर्थ-
तुलसीदास जी कहते हैं कि मुखिया मुख के समान होना चाहिए जो खाने-पीने को तो अकेला
है, लेकिन
विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है।
सरनागत कहुंं जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावंर पापमय
तिन्हहि बिलोकति हानि।।
अर्थ-
जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान लगाकर शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं वे क्षुद्र और पापमय
होते हैं। अपितु ,उनका तो दर्शन भी उचित नहीं होता।
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।
बिधि हरि हरमय बेद
प्राण सो। अगुन अनुपम गुन निधान सो।।
श्री रघुनाथ के नाम "राम" की वंदना करता हूँ, जो
कृशानु (अग्नि),भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात
"र" "आ" और "म" रूप से बीज हैं। वह "राम"
नाम ब्रह्मा,विष्णु
और शिव रूप हैं। वह वेदों का प्राण हैं; निर्गुण,उपमा रहित और गुणों का भण्डार हैं।
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